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बरा सोधिए
एक ही स्थान पर बीतने लगा है। यदि इसे रोका न गया अन्यथा-अहिंसा, सत्य, अचौर्य ओर ब्रह्मचर्य पर तो सभी तो भ्रम है कि निकट भविष्य मे जैन-साधु अन्य धमा- धर्म वाले ओर राजनीति चलानेवाले, सभी जन-साधारण वलम्बी साधुओ की तरह कही उपाययवामी बनकर न जोर देते देखे जाते हैं। रह जाएं। ___* साधु या त्यागी भले ही पैमा हाथ से छूते न हों २. एक पत्र के अंश (जो हमने लिखा) किन्तु उसका हिसाब-किताब रखते देखे जाते है।
धर्म स्नेही, जय जिनेन्द्र ! *आज कुछ साधु अपने साथ पिच्छी, कमण्डल और आपके कई प्रकाशन मिलते रहे । विचार कर निवेशास्त्र के अतिरिक्त टेपरिकार्डर, ट्राजिस्टर आदि भी दन कर रहा हूं।..... मुनि श्री के बहाने हम ऐसी किसी रखते हैं। लोगों से कहकर कैसिट आदि मगाते है। भी सस्था के खडे करने के पक्ष मे नही, जिसमें अर्थ संग्रह
*आचार्य शान्ति सागर जी कहा करते थे कि नकद करने या उसके हिसाब के रख-रखाव का प्रसंग हो। हम पैसा लेने वाला साधु तो नरक जायेगा ही, देने वाला उनमे तो मुनि श्री को प्रचार के साधनो-टेप-रिकार्डर, माइक, पहिले जाता है। चन्दा-चोकडा करना यह साधु का काम बीडियो और मच आदि से भी दूर देखना चाहते है। हम नहीं है। वैराग्य का व्यापार नहीं हो सकता।" चाहते है कि-मुनि श्री का घेराव न किया जाए। यदि
_ (जैन गजट २१ अक्तूबर १९८६ से) उनसे कुछ धर्मोपदेश सुनना हो तो उनके ठहरने के स्थान उक्त बाते कहां तक, कितनी ठीक है, हम नहीं पर जाकर ही सुना जाय । मुनि श्री का जयकारा करनाजानते । हा, यह अवश्य कहते है कि ये सब बात परिग्रह कराना, उन्हे समूह की और खीचना, उन्हे मार्ग से च्युत रूप होने से विकारी-धर्मभ्रष्ट करने वाली है। इनसे करने जैसे मार्ग है । इनसे साधु का अह बढ़ता है, यशबचकर ही जिन-शासन को सुरक्षित रखा जा सकता है। लिप्सा होती है, राग-रंजना होती है, और वह जिसके लिए हम तो यह भी कहेगे कि आज गानव-स्वभाव इतना दीक्षित हआ है उस स्व-साधना से वचित रह जाता है, दूषित बन गया है कि जब हम छोडने की, अपरिग्रही और गर-सुधार के चक्कर में पड़ जाता है : आदि । जैन बनने की बात करते है तब यह जोड़ने को बात करता ये हम इमलिये भी लिख रहे है कि आज मुनि-मार्ग है और जोड़ने की इस धुन मे वह अपरिग्रही को भी नहीं विकृत रूप ले रहा है : सस्थाओ से बधे त्यागी अर्थ संग्रह बख्शता । उसे भी घेरे रहकर उसके धार्मिक क्रिया-काण्डो में लगे देखे जाते है, उनके प्रति लोगों को श्रद्धा भी घट के समय तक को अपने उपकार में ही लगवाना चाहता रही होती है। ऐसे में जब इस काल में कोई सच्चा हीरा है। कई लोग तो अपरिग्रहयो के बहाने धन्ध चलाने की हमारे सामने आया है तो हम आदर्श रूप में उसका सदुपधन में भी देखे जाते है । कोई उनके प्रवचन छपाकर योग अपने आत्मोद्धार-मार्ग मे करे-उसे घेरकर उसकी बेचते हैं तो कोई अन्य बहानो से पैमा इकट्ठा करते है। ज्योति के अवरोधक न हो। "भले ही जबकि साधु को उनसे प्रयोजन भी न हो, आदि ।
प्रसंग में हम इतना ही कहना चाहेगे कि लोग अरि- ३. "सिद्धा ण जीवा" (धवला)
त र यो का घेराव न करे केवल जीवन-मरण आवागमन का नाम है। और आवा. उनके धर्म-उपकरणों को ही जुटाए। यदि हमारी स्वार्थ- गमन को शास्त्रों मे ससार कहा है -'ससरणं संसार।' रूपी करनी से साधु का साधुत्व और अपरिग्रहत्व जाता है जब कोई व्यक्ति शुद्ध-आत्म-स्वरूप के विवेचन में तो सच समझिये कि जो धर्म अवशेष है, वह भी चला 'आत्मा जीता है', आदि जैसे शब्दो का व्यवहार करता है जायगा। यतः केवल जैन ही ऐसा है, जिसमे वीतरागता तो बडा अटपटा लगता है, फिर चाहे वह 'चेतन गुण से और अपरिग्रह की प्रमुखता और पराकाष्ठा है और इसी. जीता है ऐमा ही क्यों न कहे ? सोचने की बात है कि लिये सर्वज्ञता है, और इसी की पूजा है, यही धर्म है। जब चेतना-जान-दर्शन को स्वभाव मान लिया तो उसमें