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________________ २६, बर्ष ३६, कि०४ अनेकान्त कोटि के अर्थशास्त्री भी थे । अर्थशास्त्र के सूक्ष्म से सूक्ष्म सेवन का आदेश दिया है । आचार्य तीनों पुरुषार्थों में अर्थ सिद्धांतों का आचार्य को पूर्ण ज्ञान था। वे एक व्यावहा- को सबसे अधिक महत्व देते है, क्योंकि यही अन्य पुरुषार्थों रिक राजनीतिज्ञ थे और इस बात को भली-भांति जानते का आधार है। इनके द्वारा वणित अर्थ की परिभाषा थे कि धन के बिना राज्य का कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं बड़ी महत्वपूर्ण एवं सारगभित है। जिससे सब प्रयोजनों हो सकता । इसी कारण उन्होंने अपने प्रण नीतिवाक्यामत सिद्धि हो उसे वह अर्थ कहते है । वास्तव में उनका कथन में कोष समुद्देश्य का समावेश किया तथा अन्य समद्देश्यो यथार्थ ही है। क्योंकि विश्व मे ऐसा कोई भी कार्य नही में भी यत्र-तत्र अर्थशास्त्रों के गूढ़ सिद्धान्तों की विवेचना जो धन से पूर्ण न हो सके । अर्थ व्यक्ति की समस्त कामकी है। धर्माचार्य होते हुए भी उन्होंने अर्थ के महत्त्व को नाओं को पूर्ण करने में समर्थ है। इसी कारण आचार्य ने है तथा कोष को राजाओ का प्राण बतलाया है। उन्होंने अर्थ को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है। धर्म, अर्थ, और काम तीनो पुरुषार्थों का ही समरूप से दिगम्बर जैन कालिज, बडौत (मेरठ) (पृ० १७ का शेषाश) है तो आप स्वय ही सर्वज आ'त ठहरते है और यदि सब और मांस भी जीव का शरीर है, फिर भी आर्य पुरुषों देशों और कालों को जानकर नहीं कहते तो आपका कथन को अन्न ही खाना चाहिए, माम नही । जैसे माता भी प्रमाणित नहीं माना जा सकता । आप्त के नाम पर स्त्री है और पत्नी भी स्त्री है किन्तु लोग पली को ही आप्ताभासों का बाहुल्य है । अत: आप्ताभासो (बनावटी भोगते है, माता को नही। इस प्रकार आप्त की परीक्षा आप्त) को जान लेना अत्यावश्यक है। इसी कारण ग्रन्थ- कर ११७वें श्लोक मे आप्त का स्वरूप बताते हा कहा हैकार ने आप्ताभासों का विस्तार से वर्णन किया है। शिव, आप्तोर्थतः स्यादम रागमाघरच्छांगताधे रपि भूष्यमाणः । शिवगण, गंगा, पार्वती, गणेश, वीरभद्र, ब्रह्मा, सरस्वती, तीर्थकरपिछन्नसमस्त दोषावत्तिश्चमुक्ष्मादि पदार्थदर्शी ॥ नारद, विष्णु, राम, परशुराम, बुद्ध, इद्र, आठों दिक्पाल, तदनन्तर तीर्थकर का अर्थ बताते हुए जिनेन्द्र देव का सर्य, चन्द्रमा, बद्ध, मगल, भैरव, सर्प, भैरवियाँ, गोमाता, स्वरूप बताया है और कहा है कि उनके ही श्रीमान पृथ्वी, नदी, समुद्र आदि जो भी देवी-देवता के रूप में पूजे स्वम्भ, वृषभ, शिव, विष्ण, आदि अनेक नाम है । इसके जाते हैं, एक-एक को लेकर उनकी समीक्षा की है। इतना बाद जीवाजीवादि मात तत्वो का स्वरूप और उसके बाद ही नही जैनो के भी श्वेताम्बर, यापनीय काष्ठ संघी, सम्यग्दर्शन का वर्णन है इसी सन्दर्भ मे लोक मूढ़ता का द्रविड़ सघी, निष्कुण्डिका आदि भी उनकी आलोचना स्वरूप बताया है। आठ मद और छ. अनायतनों को परिवि से बाहर नही हो पाए है। इस सन्दर्भ मे उन्होने बता कर सभ्यग्दर्शन के नि.शाक्तिनादि आठ अंगों का जो भी प्रमाण दिये हैं वे पुराण प्रसिद्ध हैं, जिससे यह वर्णन किया है। सभ्यग्दर्शन के आठ दोषों का भी विवेचन अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अहंदास जैन यही किया है । इसके बाद आठ अगों में प्रसिद्ध हुए पुराणों के साथ ही हिन्दू पुराणों के भी अशेष पण्डित थे। व्यक्तियो के नाम और सम्म ग्दर्शन का माहात्म्य बताया बुद्ध की की गई आलोचना से उनका बौद्ध दर्शन सम्बन्धी है। सात परम स्थानो का कथन कर दो पद्यों में सम्यक्अगाध पाण्डित्य प्रकट होता है। ग्यान का स्वरूप बताया है। आगे सम्यक् चरित्र का मांस भक्षण के प्रसगो को भी ग्रन्थकार ने उठाया है स्वरूप बताकर कहा गया है कि इन तीनों की पूर्णता से और बड़े वैदुष्यपूर्ण शब्दो मे मास भक्षण का निषेध किया हो मोक्ष होता है। तदनन्तर आचार्य, उपाध्याय और है। यहां भी कवि की ताकिक शैली ने विराम नही लिया साधू का स्वरूप बताकर उनकी स्तुति की गई है । अन्त है। वें श्लोक में कहा गया है कि-'यदि कोई कहे में उपसंहार करते हुए कहा हैकि अन्न जीव का शरीर है अत: अन्न की तरह मास इत्युक्तमाप्तादिवषट्स्वरूप सशृण्वतोस्वैव दृढा रुचिःस्यात् । भक्षण करना कोई बुरा नहीं है, तो उसका ऐसा कहना सज्ज्ञानमस्याश्चरितततोस्मात्कर्मक्षमोस्मात्सुखमप्यदुःखम् । ठीक नहीं है, क्योकि यद्यपि अन्न भी जीव का शरीर है जैन कालेज, खातोली। पाण
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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