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समवशरण सभा के १२ कोठे
गतिभिन्नता हो जाती और स्त्री सानिध्य से शालीनता में शुभ दिशा आग्नेय विषे कही, लसत कोठा तीन भलें तहीं। भी दोष आता।
मुनि आर्या कल्पवासनी, तिया, मनुषणी तिसरे यह बैठिया ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार की पं० सदासुखदास जी कृत (चारों दिशाओं में तीन-तीन कोठे के हिसाब से १२ हिन्दी वचनिका में १२ कोठों के क्रम में एक अन्तर इस कोठे बताये हैं। प्रथम आग्नेय दिशा (पूर्व दक्षिण कोण) प्रकार है। (देखो षष्टम अधिकार के उपान्त्य में) में तीन कोठे इस प्रकार हैं-१. मुनि और आयिका, __ "भगवान् गंध कुटी में पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशा ।
२. कल्पवासी देवियां, ३. मनुष्यणी-सामान्य स्त्रियां ।) के संमुख तिष्ठे है उनकी प्रदक्षिणा रूप संमुख पहली सभा
शेष कथन प्राचीन शास्त्रानुसार ही है। सिर्फ स्त्रियो के में गणधरादि मुनीश्वर तिष्ठे है, दूसरी सभा में कल्पवासी
तीसरे कोठे से आयिकाओ को निकालकर मुनियो के प्रथम देवियां तीसरी मे आयिका अर मनुष्यणी चौथी में चक्र
कोठे में रख दिया है यह गलती है। वादि सहित मनुष्य पांचबी में ज्योतिष देवियां छठी मे
छद्मस्थतादि की वजह से, अपेक्षाभेद से, आचार्य व्यंतरिया सातवी मे भवनवासी देविया आठवी मे भवन
आम्नाय की दृष्टि से, मुद्रण-लेखन प्रति लेखन की भूल से वासी देव नवमी मे व्यंतरदेव दशवी में ज्योतिष्क देव
शास्त्रों में विभिन्न कथन हो जाते है। जिस तरह हम ग्यारहवी मे कल्पवासीदेव बारहवी में तिथंच हैं।"
अनाज के ककरादि को शोध बीन कर पानी को छान कर ___ सब शास्त्रों में मनुष्यो का कोठा ११वा दिया है फिर काम में लेते है उसी तरह शास्त्रों को भी पूर्वापर किन्तु यहां उसे चौथे स्थान पर रख दिया है। इससे यहीं मिलाकर युक्तिपूर्वक शोधकर सम्यक् अध्ययन करना से सब का भंग हो गया है। पांचवें देवी और तीसरे चाहिए। धवल जयधवल मे भी अनेक जगह इन बातों मनष्यणी के कोटे के बीच चौथा मनुष्य कोठा रखने से का उल्लेख है। ये सब स्वाभाविक है संभाव्य है इन्ही के शालीनता मे भी दोष आया है। ऐसा क्यों किया गया? शायद पडित जी को मनुष्य जाति की उच्चता ने ऐमा प्रवाहित करना अग्नि समर्पण करना घोर मूढ़ता और करने को बाध्य किया हो। यह कथन सापेक्ष है । कोई अविवेक है। कषाय और अनुदारता से यह सब अपनी सैद्धान्तिक भूल नहीं है फिर भी विद्वानी को इस पर निधि का अपने ही हाथो बरबाद करना है। ऐसी प्रवत्ति विचार करना चाहि ! । यहाँ पडित जी ने १२ कोठो को मे बचना चाहिए। कोई चीज अभी हमे समभ नही आई १२ सभा कहा है किमी ने १२ गण कहा है। यह राव हो तो उसे आगे के लिए छोड देना चाहिए इस दूरदर्शिता शब्द भेद है अर्थ भेद नही। महापुराण मे १२ गण और को तो हमें कम से कम अगीकार करना ही चाहिए। १२ कोष्ठ कहा है एव जयसेन प्रतिष्ठा पाठ मे १२ सभा कहा है।
जैनधर्म लह मद बढ़े, वैद न मिलि है कोई। समवशरण पाठ (प० भगवानदासजी कृत) पृ० १४८
अभत पान विष परिणवे, तांहि न औषधि होई। में--पहले मुनि कोष्ठक मे ही आयिकाओ को भी रख जो चरचा चित मे नही चढ़े, सो सब जैन सूत्र सो कढ़े। दिया है और तीसरे कोष्ठक में सिर्फ सामान्य स्त्रियों को अथवा जे श्रुत मरमी लोग, तिन्हें पंछ लीजे यह जोग । रहने दिया है। यह स्पष्टतः सैद्धातिक भूल है इससे संयत इतने पर संशय रह जाय, सो सब केवल ज्ञान समाय। असयत एक होकर गुड़ गोबर हो गया है शालीनता और यो नि.शल्य कीजे निजभाव, चरचा में हठ को नही दाव॥ आचार शास्त्र का भी हनन हुआ है । मूल पद्य इस प्रकार
केकडी (अजमेर) ३०५४०४