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________________ स्मरण रहे कि कुछ वर्षों पूर्व मुनि श्री विद्यानन्द जी है। आर्थिक दृष्टि से भी हमने उन्हें कभी सन्तोष की सांस का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने 'कुन्दकुन्द-भारती लेते नहीं देखा-समाज से सर्वथा असन्तुष्ट । जब भी नामक सस्था की योजना बनाई। उनकी भावना रूप आज मिलते अपनी व्यथा सुनाते । कहते-"हमने दिगम्बरों में दिल्ली में विशाल-भवन तैयार है और भावी कार्यक्रम के जन्म लिया, पढ़ा-लिखा और आजीविका के निमित्त श्वेलिए अर्थ-संग्रह भी मुनि श्री के लिए साधारण सी बात ताम्बरों में भी रहे। जब कही आत्म-सन्तोष न हुआ तो है। हम आश्वस्त हैं कि इस दिशा में मुनि श्री का लक्ष्य अब श्री महावीर की शरण में आ पड़े । अब हमें विश्वास पूरा होगा। हो गया कि हमने दिगम्बर रूप में जन्म लिया और दिगरही बात कुन्दकुन्द कृत पागमों के शुद्ध रूप में म्बरत्व में ही कूच करेंगे।" विधिवत् सजन, पठन-पाठन और तदनुरूप आचरण की। उपर्युक्त शब्द उनकी अन्तर्वेदना-सूचन में पर्याप्त हैं। सो मुनि श्री की लगन से ये विधियां भी सहज संपन्न अब समाज को सोचना है कि उसने पंडित जी की विद्वत्ता होंगी। ऐसा हमें विश्वास है। हाँ, हमें इतनी चिन्ता का क्या लाभ लिया और बदले में क्या दिया और ज्ञान अवश्य है कि जैनियों में विद्वान् कहाँ मिलेंगे ? पर, हम लेने मे आगे कौनसा मार्ग अपनाएगा? जरा सोचिए ! आश्वस्त भी है कि जब महाबीर भगवान के समय में कोई अन्तिम बार वे जुलाई ८६ मे, दिल्ली चिकित्सार्थ जैन न मिला तो गौतम ब्राह्मण ने जैनी दीक्षा लेकर मार्ग आए और अहिंसा मन्दिर में श्री प्रेमचन्द जैन के पास प्रशस्त किया-शर्त जैन होने की जरूरी थी और वह इस ठहरे, तब मैने उन्हे 'मुक्ति में करुणा : एक विसंगति' लेख लिए कि बिना तद्रूप श्रद्धान और आचरण के इस धर्म सुनाया, तो बड़े सन्तुष्ट हुए। उन्होंने लेख को पुनः पुनः का प्रकाश करना सर्वथा असभव था और वह बधन अब स्वयं पढ़ा और बोले-'आप बड़ी निर्भीकता से लिखते भी यथावत् स्थित है । अस्तु, जब महाराज श्री की इतनी रहते हैं; यह लेख भी सर्वथा युक्ति-संगत और अकाट्य लगन है तब वे कुन्दकुन्द के अनुरूप जैनी-नीति, जैनाचार है।' जब वे चले गये तो अगले दिन श्री प्रेमचन्द जैन ने अनुसा, जैनत्व में दढ़ कोई पात्र खोज चके होगे या उनकी मुझे एक श्लोक दिया और कहा पण्डित जी जाते जाते दे दृष्टि उधर जमी होगी ऐसा हमें विश्वास है । हम सस्था गए हैं और कह गए है कि इसे अपने लेख के अन्त में के अभ्युदय की कामना करते हैं । -सपादक प्रार्थनारूप में जोड़ दें।' हमने उसे लेख में जोड़ दिया है। फिर भी पाठको के स्मरणार्थ पुनरावृत्ति कर रहे हैं। ज्ञान-स्तम्भ को नमन : पण्डित जी द्वारा प्रदत्त यह अन्तिम और अपूर्व निधि है । दुखद-समाचार मिला, एक स्तम्भ गिरने का-श्री देव देवस्य यश्वकं तस्य चक्रस्य या प्रभा। पंडित मूलचन्द्र शास्त्री, श्री महावीर जी वाले नहीं रहे। तयाच्छादित सर्वांगं, विद्वांसो घ्नन्तु मागमम् ॥' वे विद्वत्ता के गौरव थे और सभी भांति वृद्ध। हम उन्हें उक्त अमूल्य-तथ्य प्रदानता के लिए हम स्वर्गीय आयुवद्ध, ज्ञानवृद्ध और जीपन भर अभाव-बृद्ध मानते रहे पंडितात्मा के प्रति नत-मस्तक हैं। -सपादक (पृ० १६ का मेषांश) करमि सुयण संभावउ. करवल सतावउ, शृंगार, वीर, करुण और शांत रसों का परिपाक भी हउ कब्वमउ सरोरुवि ।। (हरि० पु. १-२) उल्लेखनीय है। महाकवि ने नगर, वन, पर्वत आदि का महाकवि ने अपने पुराण को नाना पुष्प-फलो से अलकृत महत्त्वपूर्ण चित्रण किया है। इस काव्यकृति में प्रकृति के और बद्धमूल महातरु कहा है। इसी प्रसंग में कवि ने उद्दीपन रूप का सुन्दर वर्णन हुआ है। मधुमास के द्वारा आत्मविनय प्रदशित किया है। सज्जन-दुर्जन स्मरण और मदन के उद्दीप्त होने का मोहक स्वरूप प्रभावकारी बन आत्मविनय के पश्चात ही कथारम्भ होती है। पड़ा है। ___ हरिवशपुराण' की कथा का क्रम स्वयंभू आदि प्राचीन इस प्रकार महाकवि धवल विरचित 'हरिवंश पुराण' कवियों की परम्परा के अनुकूल है। ग्रंथ में स्थान-स्थान पर अपभ्रश काव्य की निरुपमेय निधि है। अलंकृत और सुन्दर भाषा में अनेक काव्यमय वर्णन उप मंगलकलश लब्ध होते हैं । पज्झटिका, अल्लिलह, सोरठा, पत्ता, विला ३९४, सर्वोदयनगर, आगरा रोड, सिनी सीमराज प्रभति छंदों का प्रयोग ग्रंथ में हुआ है। अलीगढ़-२०२००१(उ० प्र०)
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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