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आत्मदृष्टि जाने नहिं, नाहवे प्रातःकाल; लोक लाज 'विध' सहु करे, लगा भरम कपाल. तीरथ और सब व्रत करे, उंडे पानी न्हाय; राम नाम नहिं जपे, काल ग्रसी ले जाय. काशी कोठे घर करे, न्हावे निर्मळ नीर; मुक्त नहि हरिनाम बिन, युं कहे दास कबीर.. १:
(९) केटलाक पंडीतो प्रातःकाळमां उठीने स्नान करेछे अने लोकलान खातर तीलक तथा पूजा वगेरे विधिओ के जे 'भ्रमरुप ले ते सर्व करें छे; पण वीचाराने आत्मदृष्टि' छे नहि तेथी नकामो भटके ले. - (१०) केटलाक पंडीतो तीर्थ अने व्रत वगेरे करे ने " उंडा पाणीमां पेसीले स्नान करेछे, पण राम नामर्नु तीर्थ कयु नहि, रामर्नु फरमान ( अगीआरमी 'लोकस्वरुप भावना' ) ए रुपी व्रत पळायुं नहि, अने रामना प्रेमरुपी उंडा पाणीमां न्हवायुं नहि तेथो ते पंडीतजी काळदेवना कोळीआ थइ जवाना ज ! मतलब के जन्म - मरणना फेरा फर्या करवाना ज. - (११) केटलाक लोको काशी कांठे जइने रहेछे अने गंगाना रसायणीक गुणवाळा स्वच्छ जळमां हमेश स्नान करेहे, पण हरि. नाममा रह्या सिवाय अने हरिनाममां स्नान कर्यां सिवाय मुक्ति को काळे मळवानी नथी, एम 'दास कबीर' कहे छे. जे साधुओ पोतानः . नामनी आगळ पाछळ म्होटां पूंछडा पोतानी जाते लटकावता होग
हेमणे कबीरजीने पूछी जोवु के ते पोताने 'दास कबीर के कई छे ? तेमज जे संसारीओ कोइ युनीव्हीटी के सभा के संघ तरफथी · पंडीताइना खीताब अपाया सिवाय पोतानी मेळे 'पंडीत'ना खीताब
लइ बेठा होय हेमणे पण कबीरजी पासे आ वातनो भेद पूछवा पधार ! रस्तो खुल्लो छे !