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________________ भक्ति केवी रीते करशो ? श्र माला तो करमें फिरे, जीभ फरे मुखमांहि; मन तो चादिश फिरे, ऐसो सुमरन नाहि. सुमरन ऐसो किजीये, खरे निशाने चोट, सुमरन ऐसो किजीये, हले नहिं जीभ होठ. अंतर ' हरि हरि ' होत है, मुखकी हाजत नाहिं, सेहेजे धून लगी रहे, संतनके घट मांहि. 7 १ (१) हाथमां माळा फरे, मुखमां जीभ फरे अने ते ज प्रमाणे मन पण विश्वमां फरेछे-भटकेछे; तो एवी जातना प्रभुस्मरणथी शुं दहाडो वळवानो हतो ? (२) जैम कोइ नीश नवाज माणस बराबर धारेला नीशान पर जतीर चोंटाडी दे छे, तेम त्हमे पण प्रभु उपर हमारुं ध्यान siesो. जीभ के होठ हलाववानी जरुर नथी. ध्यान कोइ शब्दथी नदि पण मनथी थवानुं छे. (३) 'संत' अथवा 'हरिजन' केवा होय छे ? तो कहे छे के, एमना अंतरमा हरितुं भान सदैव होय छे, तेथी मुखथी 'हरि' एवो उच्चार करवानी एमने ' हाजत' अथवा भुख रहेती नथी. संतना घटमां 'सहज' अथवा स्वाभाविक रीते ज धून लागी रहेती होय बाह्य पोकरनीशी जरुर होय ? आ पदमां 'संत'नी व्याख्या बह सारी आपी छे. 'संत' ए संस्कृत शब्द छे अने ते अम् = होवुं ए धातु उपरथी नीकळेलो छे, जे हरिवासमां 'छे' अथवा जे अमरताना भानमां दाखल थयोछे तेज संत अथवा हरिजन, बाह्य क्रिया उपरथी संतनी परीक्षा थाय ज नहि.
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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