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________________ जीरणसेठ वि.सं. २०६४, मासोसुह-७, भंगणवार ता.७-१०-२००८.१०८ धर्म था विशेषis 1101 विशाला नगरी में एक श्रेष्ठि रहता गया जिससे उसने बारहवे देवलोक के योग्य था।वहपरमार्हतश्रावक थे। कर्म उपार्जित किया । उस समय श्री महावीर एक बार भगवान महावीर चौमासी प्रभु अभिनव नामक एक श्रेष्ठि के घर पहुंचे। तप करके इस नगरी के उपवन में काउसग्ग उस समय उसने नौकर दाश भगवान को ध्यान कर रहे थे । प्रभु पधार है ऐसा ज्ञात होते आहार - पानी दिलवाए। ही श्रेष्ठि ने वहाँ आकर प्रभु को वंदना की और इस दान के प्रभाव से वहाँ पाँच दिव्य प्रगट कहा, 'स्वामी! आज मेरे घर पारणा (गोचरी हुए। (फुल की बुष्टि, वस्त्रो की दृष्टि, हेतु) करने आपपधारना ।' ऐसा कहकर अपने सुवर्णमुद्राओ की दृष्टि एवं देवदुंदभी बजे घर गया मगर प्रभु उसके घर आये नहीं । 'अहोदान अहोदान' देवता आकाश से बोले जिससे दूसरे दिन वहाँ आकर 'छठु तप' होगा उसे पाँच दिव्य कहा जाता है।) यहाँ जीरण सेठ ऐसा सोचकर प्रभु के प्रति ऐसी अर्ज की, है ने भावना करते करते देवदुंदभि पनी । उसने कृपावतार!'आज मेरे घर पधारके मेरा आंगन सोचा मुझे धिक्कार है । मैं अधन्य हूं। अभागी पवित्र करना।' ऐसा कहकर घर गया । परंतु हुँ सा प्रभु मेरे घर नहीं पधारे । इस प्रकार भगवंतने तो हाँ या ना का कोई उत्तर नहीं ध्यानभंग हुआ और मनदुःख के साथ भोजन दीया। इस प्रकार हररोज निमंत्रण करते हुए किया। चार माह बीत गये । चौमासी पारणे के दिन वह तत्पश्चात् कोई ज्ञानी गुरु रास नगर में मन में सोचने लगा कि आज तो अवश्य प्रभु को पधारे। उनको वंदन करके राजा ने कहा, 'मेश पारणा होगा ही, इस कारण प्रभु के पास जाकर नगर प्रशंसा के पात्र है क्योंकि प्रभु महावीर बोला, कि 'दुर्वार संसारमय धन्वंतरी (दुःख स्वामी को चौमासी पारणा करानेवाले जिसमें से दूर नहीं की जा सकते ऐसे संसाररुपी महाभाग्यशाली अभिनव श्रेष्ठी यहीं पर रहते हैं। एसे रोग को दूर करने में साक्षात्धन्वतरी बैद्य) जैसे हेप्रभु! पुण्यात्मा से मेरा नगर शोभित है। ज्ञानी गुरु बोले कि कृपामय ! आपके इन लोचनों से मुझे देखकर, आप 'एसा कहना योग्य नहीं है। क्योंकि अभिनव सेठने तो मेरी अरज अवश्य स्वीकार करना ।' ऐसा कहकर द्रव्य भक्ति की मगर भावभक्ति तोजीरण श्रेष्ठीने की हैं अपने घर गया। समय होने पर मध्याहन काल में हाथ 1 इसलिये उनको अधिक पुण्यवंत मानना चाहिये। मेंमोती से भराथाल लेकर प्रभुको बधाने के लिए घर के | जीरण सेठ ने देवदुंदुभी की आवाज कुछ क्षणों के लिये दरवाजे पर खडे होकर सोच रहा है, 'आज जरुर सुनी नहीं होती तो वे उस श्रेणी पहुँच चुके थे कि उनको जगबंध पधारेंगे, तब मैं उनको परिवार सहित .. . तत्काल केवलज्ञान हो जाता । राजा इस कारण वंदन करूंगा । घर में बहुमान सहित ले . , जीरण सेठ की भूरी भूरी अनुमोदना करने जाऊंगा, उत्तम प्रकार के अन्नपानी अर्पण - लगे और जीरण सेठ कालानसार बारहवें करूंगा, अर्पण करने के पश्चातशेष अन्नमै देवलोक में देव बने। वहाँ से कालक्रमानुसार मेरी आत्माकोधन्यमानकर खाऊंगा।' मोक्षपायेंगे।" इस प्रकार मनोरथ की उच्च श्रेणी पर चढ़ता T5rIE| Fol
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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