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क्षुल्लक शिष्य
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वि.सं. २०६४, खासो सुद्द -७, भंगणवार ता. ७-१०-२००८ १०८ धर्म था विशेषां
क्षुल्लक शिष्य
वसंतपुर में देवप्रिय नामक श्रेष्ठि रहता था । युवावस्था में उसकी स्त्री का मरण हुआ और उसमे उसे वैराग्य हुआ । इस कारण अपने आठ वर्षीय पुत्र सहित उसने दीक्षा 'ग्रहण की। देवप्रिय बहुत अच्छी तरह से चारित्र पालते थे परंतु बालक जिसका नाम क्षुल्लक था वह जैन आचार पालने में शिथिल था । वह परिषहों को सहन नहीं कर पाता था । जूते बिना चलना उसको मुश्किल लगता था इसलिये एक बार अपने साधू पिता को उसने कहा, 'ब्राह्मणों का दर्शन श्रेष्ठ लगता है, जिसमें पावों की रक्षा हेतु जूते पहनने की विधि है । यह सुनकर देवप्रिय मुनि ने क्षुल्लक तो बालक है और कुछ
प्रतिराग के कारण उसे जूते पहनने की छूट दी ।'
थोडे दिन बाद क्षुल्लक ने अपने गुरु पिता को कहा, 'हे पिता ! धूप में बाहर निकलते ही मेरा सिर तप जाता हैं । तापसों का धर्म ठीक हैं क्योंकि वे सिर पर छत्र रखते हैं। यह सुनकर गुरु ने कहा इस क्षुल्लक में परिपक्वता नहीं है और यदि छाते की अनुमति उसकी जरुरत अनुसार नहीं दूंगा तो शायद दीक्षा छोड़ देगा ।'
कई माह के पश्चात क्षुल्लक ने पुन: कहा ' गोचरी के लिये घर घर भटकना बडा मुश्किल लगता है। पंचाग्नि साधन करनेवाला आचार मुझे श्रेष्ठ लगता है क्योंकि कई लोग उनके समक्ष आकर भिक्षा दे जाते हैं। गुरु ने पूर्वानुसार सोचकर भिक्षा
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लाकर स्वयं उसे देने लगा। इससे क्षुल्लक मुनि ने गोचरी के लए जाना बंद कर दिया। एक दिन सवेरे उठकर क्षुल्लक मुनि शाक्यमत की प्रशंसा करते हुए कहा, 'पृथ्वी पर संथारा करने से मेरा शरीर दुखता है, सो सोने के लिये एक पलंग हो तो कितना अच्छा।' इस कारण गुरु ने उपाश्रय में से लकड़े की चौकी सोने के लिए उसे दी। तत्पश्चात पुत्र मुनि को स्नान बिना ठीक न लगा तो उसने शौचमूल धर्म की प्रशंसा की । तब पिता ने उबाला हुआ पानी लाकर उससे स्नान उस्त्रे से मुण्डन कराने की भी अनुमति दी ।
इस प्रकार करते क्षुल्लकर मुनि युवावस्था में पहुँचे । एक बार उसने गुरु पिता को कहा, 'गुरुजी मैं ब्रह्मचर्य पालने में समर्थ नही हूँ' एसा कहकर उसने गोपी और कृष्ण लीला की प्रशंसा की । यह सुनकर पिता ने सोचा, 'वाकई, यह पुत्र सर्वथा चारित्र पालने में असमर्थ है। मोहवश इतने समय तक उसने जो माँगा वह दिया। परंतु यह माँग तो किसी भी तरह से स्वीकृत नहीं की जा सकती। यह यदि मैं स्वीकृत करकर उसे अनुमति दूं तो वह तो नर्क मे जायेगा, मैं भी नर्क मे जाऊंगा।'
इस जीव को अनंत भवो में अनंत पुत्र हुए है तो उस पर किसलिये मोह रखना चाहिये ? इत्यादि विचार करके क्षुल्लक मुनि को उन्होंने गच्छ बाहर निकाल दिया। इस प्रकार पिता से दूर होते ही अपनी मर्जी अनुसार जीवन बीताने लगा । क्रमानुसार वह अन्य भव में भैंस बनी और उसने पिता स्वर्ग लोक में देवता बने ।
देवता नें अवधिज्ञान से पुत्र को भैंस बना देखकर सार्थवाह का रूप धारण करके उस भैंस को खरीदा और उसका पानी की मशक भर लाने के लिये उपयोग