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________________ श्री भोगसार वि.सं. २०६४, खास सुह-७, भंगणवार ता. ७-१०-२००८ १०८ धर्म था विशेषां अनेक उत्तम और शुभ कार्यों के लिए उद्यम कर दंभ ही सर्व पाप का मूल है तथा अनेक सद्गुणो का नाश करनेवाली है। और समुद्र को पार करनेवालों को नाव में एक लेशमात्र भी छिद्र हो तो वह डूबने का कारण है, उसी प्रकार जिसका चित्त अध्यात्म ध्यान में आसक्त है उसे थोडा सा भी दंभ रखना उचित नहीं है क्योंकि वह संसार में डूबने वाला है। सर्व स्त्रियाँ खा चुकी तब भानजा बोला, 'हरेक स्त्री मेरे मामा के मंडप को अक्षत से बधावे। यह सुनकर स्त्रियों ने मांगलिक के लिए मण्डप की अक्षत से पूजा की तब वह जार मण्डप बधाने आये नहीं। तब भानजा बोला, 'हे माता ! आप क्यों मण्डप बधाती नहीं है ?' स्त्रियों की पंक्ति में भोजन करने बैठी थी अब उस पंक्ति से अलग नहीं है।' यह सुनकर वह मण्डप बधाने नीचे झुकी तो उसकी कुक्षि में छिपाये हुए मोदक गिर पड़े। जिससे वह खूब शरमाकर एक दम भाग गया। मामा भानजे को पूछा, 'यह मोदक कहाँ से आये ? ' वह बोला 'आपके पुत्रविवाह उत्सव में मण्डप ने मोदक की वृष्टि की ।' मामा बोला, 'हे भानजे! इतना ज्ञानी कैसे बना ?' वह बोला सर्व बात एकान्त में बताऊंगा ।' विवाह का सर्व कार्य पूर्ण हुआ तब अपना देव स्वरुप प्रकट करके श्रेष्ठि को सर्ववृतांत कहा। श्रेष्ठि की स्त्री को देवता ने कहा, 'हे स्त्री ! तेरा पति कैसा परमात्मा की भक्ति में तत्पर है ? वैसो तू भी बन । तू जारपति के साथ हंमेशा क्रीडा करती है, आदि सर्व वृतांत मे जानता हूँ परंतु तीन भुवन के अद्वीतीय शरणस्वरूप, श्री वीतराग के भक्त की तू भार्या है इससे आज तक मैने तेरी उपेक्षा की है। इसलीए अब तू समग्र दंभ छोडकर धर्मकार्य में प्रवृत्ति कर । मनुष्य पूर्व में अनंत बार भोगभोगता हैं फिर भी अज्ञान व भ्रम के कारण सोचता है कि 'मैने कोई भी समय भोग भोगे ही नहीं है। ऐसा होने से मुर्ख मनुष्य की काम भोग सम्बन्धी तृष्णा कदापि शांत होती ही नहीं है। उसका वैराग्य होना भी अति दुर्लभ ही है। श्री अध्यात्मसार में कहा है कि 'जिस प्रकार शेरों को सौम्यपना दुर्लभ ही हैं और सर्पों को क्षमा दुर्लभ है उसी प्रकार विषय मे प्रवृत हुए जीवों को वैराग्य दुर्लभ है। इससे हे स्त्री ! आत्मा के बारे में वैराग्य धारण करके अनेक भव में उपार्जन किये पापकर्म का क्षय करने के लिये और अनादि काल की भ्रांत के नाश के लिये सर्वथा द्रव्य औ र भाव से दंभ का त्याग करके - 129 उपदेश सुनकर उस स्त्री ने प्रतिबोध पाया और श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। देवता श्रेष्ठि को लाख सुवर्णमुद्राएँ देकर अंतर्धान हुआ। क्रमानुसार भोगसार श्रेष्ठि अपनी पत्नी सहित श्रावक धर्म पालकर स्वर्ग में गया और वहाँ क्रमानुसार थोडे ही भव करके मुक्ति सुख को पायेंगे । भोगसार श्रेष्ठि की भाँति धर्म क्रिया में दि चिकित्सा का त्याग करना ऐसे जीवों का देवता भी सेवक की भाँति सान्निध्य करते हैं। પ. પૂ. આ શ્રી વિજય અમૃત સૂરીશ્વરજી મ. સા. ના પથ્થર પૂ. આ. શ્રી વિજય જિનેન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજનાં પ્રેરણાથી જૈન શાસન ૧૦૮ ધર્મકથા વિશેષાંક ને હાર્દિક શુભેચ્છા K. L. Maru C. K. Maru M/s. Shah & Shah Co. WHOLESALE DEALERS IN : + New Light Ceramics Sanitayware + Sweta Pottery Works Sanitayware ◆ Deep Ceramics Industries - Glaze Tiles + Almbice Glass Ware Glass & Jar + La Opala & Solotaires Glass cup & Saucer & Glass Borosil Glass Ware - Micowave Bowel C-31, Super Market, Jamnagar - 361 001. Ph.: 0288-2554397 મેસર્સ શાહ એન્ડ શાહ કહ્યું.
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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