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मृगावती
वि.सं. २०६४, मासो सुE-७, भंगणार .
.-१०-२००८ . १०८ धर्म था विशेषis
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तो नाममात्र है। इसलिये यदि राज्य और प्राण प्यारे है कौन समर्थ है?' पर आप पुज्य राजा तो बडे दूर रहते हो तो उसे शीघ्र यहाँ भेज दे।' दूत के ऐसे वचन सुनकर तो और शत्रु राजा तो निकट रहनेवाले है, इससे 'सर्प शतानिक बोला, 'अरे अधम दूत | तेरे मुख से तू ऐसे तकिये पर और औषधियाँ हिमालय पर' - ऐसा है तो ।। अनाचार की बात बोल रहा है परंतु जा, दुतपने के यहाँ का हित चाहते तो उज्जयनी नगरी से इंटे लाकर कारण आज मैं तुझे मारता नहीं हूँ, जो स्त्री मेरे आधीन कौशांबी के चारों ओर मजबूत किल्ला बनवा दे।' है उसके लिए भी तेरे पापी राजा का ऐसा आचार है तो गरजवान को अक्ल नहीं होती है, जिससे चण्डप्रद्योत ने अपनी स्वाधीन प्रजा पर वह कैसा जुल्म करता वैसा करना स्वीकार कीया और कुछ समय में कौशांबी होगा ?' इस प्रकार से कहकर शतानिक ने के चारोंओर मजबूत किल्ला बनवा दिय' । तत्पश्चात निर्भिकतापूर्वक दूत को तिरस्कत करके निकाल मृगावती ने फिरसे दूत भेजा और कहलवाया, 'हे प्रद्योत दिया। दूत ने अवंति आकर यह बात चंम्ड प्रद्योत को राजा ! आप धन, धान्य और ईंधन आदि से कौशांबी कही । वह सुनकर चण्डप्रद्योत को बड़ा क्रोध चढ़ा। नगरी को भरपूर कर दो।' चण्डप्रद्योत ने वह कार्य भी जिससे मर्यादारहित सैन्यलेकर कौशांबील तरफ चला। शीघ्र करा दिया; 'आशा-पाश' से बंधा पुरुष क्या नहीं चण्डप्रद्योत को आता सुनकर शतानिक राजा क्षोभ व करता ? बुद्धिमान मृगावती ने जाना कि' अब नगरी अतिसार पीड़ीत हो जाने के कारण तत्काल मृत्यु पा विरोध करने योग्य है' जिससे उसने दरवजे बंद किये गया।
और किल्ले परसैनिको को चढ़वाया। चण्डप्रद्योत राजा । देवी मृगावती ने सोचा, 'मेरे पति तो मृत्यु पा फलसे भ्रष्ट हुए कपिकी तरह अत्यंत बिलख करनगरी गये ।' उदयनकुमार अभी बालक है। 'बलवान को
को घेरा डालकरपडारहा। अनुसरना' ऐसी नीति है। परंतु स्त्रीलंपट राजा के एक बार मृगावती को वैराग्य हुआ, 'जहाँ तक सम्बन्ध में ऐसा करने से मुझे कलंक लगेगा ,सो उसके श्री वीरप्रभु विचर रहे हैं, वहाँ तक मैं उनसे दीक्षा लूं' साथ कपट करना ही योग्य है, इस कारण अब तो यहीं उसका ऐसा संकल्प ज्ञान से जानकर श्री वीरप्रभु सुररहकर अनुकूल संदेशा भेजकर उसे लालायीत करके असुर के परिवार के साथ वहाँ पधारे । प्रभु के बाहर योग्य समय आये तब तक काल निर्गमन कर लूं। ऐसा पधारने का सुनकर, मृगावती पूर्व के दर खोलकर विचार करके मृगावती ने एक दूत को समझाकर निर्भिकता से बड़ी समृद्धि के साथे प्रभु के पास पधारी। वण्डप्रद्योत के पास भेजा । वह दूत छावनी में रहे प्रभु को वन्दना करके योग्य स्थान पर बैठी । वण्डप्रद्योत के पास जाकर बोला, 'देवी मृगावती ने चण्डप्रद्योत भी प्रभु का भक्त था वह आकर बैर छोड़कर कहलवाया है कि मेरे पति शतानिक राजा स्वर्ग पधारे बैठा और सब वीर प्रभु की देशना सुनने लगे। है, अब मुझे आपकी शरण है, परंतु मेरा पुत्र अभी | 'यहाँ सर्वज्ञ पधारे है '- ऐसा जानकर एक
लरहित बालक है, इसलिये यदि मै अभी उसे छोड दूं | धनुष्यधारी प्रभु के पास आया और नजदीक खड़ा तो पिता की विपत्ती से हुए उग्र शोकावेग की तरह . . रहकर प्रभु को मन से ही अपना संशय पूछा । प्रभु क्षेत्र राजा भी उसका पराभव करेंगे। मृगावती . . बोले 'अरे भद्र । तेरा संशय वचन द्वारा कह की ऐसी बिनती सुनकर चण्डप्रद्योत बड़ा
. बता कि जिससे अन्य भव्य प्राणी प्रतिबोध हर्ष पाया और बोला, 'मै रक्षक, फिर भी
पाये ।' प्रभु ने इस प्रकार कहा तो भी वह गावती के पुत्र का परभव करने के लिये कौन
लज्जावश होकर स्पष्ट बोलने के लिये समर्थ समर्थ है?' दूत बोला, 'देवी ने ऐसा भी कहा है कि था जिससे वह थोडे अक्षरों मे बोला, 'हे स्वामी ! प्रद्योतराजास्वामी, तो मेरे पुत्र कापराभव करने के लिए | यासा,सासा।' प्रभ ने भी छोटा ही उत्तर दिया, 'एव मेव