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________________ मृगावती वि. सं. २०६४, मासो सुE-७, भंगणवा२ . . ७-१०-२००८ . १०८ धर्म या विशेषis के पास है और मेरे पास नही है ऐसा क्या है वह मुझे ईर्ष्या हुई, जिससे क्रोध हुआ और चित्रकार के दाँये हाथ बताओ ।' दूत बोला, 'हे राजन् ! आपके यहाँ एक का अंगूठा उसने कटवाडाला। चित्रसभा नहीं है ' यह सुनकर शतानिक राजा ने अपने उस चित्रकार ने यक्ष के पास जाकर उपवास नगर में बसे चित्रकारों को बुलवाकर एक चित्रसभा किया। यक्ष ने उसे कहा, 'तू बाँये हस्त से भी वैसे चित्र बनाने की आज्ञा दी। चित्र बनाने के लिये हरेक अंकित करपायेगा'-ऐसावरदान दिया। चित्रकार को उनकी जरुरत के अनुसार जगह बाँट दी। चित्रकार ने क्रोध से सोचा कि, 'शतानिकराजा उस युवा चित्रकारको अंत:पुर के नज़दीक का एक भाग ने मुझ निरपराधि की एसी दशा की, इसलिये कोई चित्रकाम के लिये मिला। वहाँ चित्रकार्य करते हुए एक उपायसे उसका बदला लेलूं।' ऐसासोचकर एकपट्टपर खिड़की में मृगावती देवी का अंगूठा उसे दिखाइ विश्वभूषण मृगावती देवी को अनेक आभूषणो सहित दिया। इससे यह मृगावती देवी होगी'- ऐसा अनुमान अंकित किया, तत्पश्चात् स्त्री-लंपट और प्रचण्ड ऐसे करके उस चित्रकार यक्षराज के वरदान से उसका चण्डप्रद्योत राजा के पास जाकर वह मनोहर चित्र स्वरुप यथार्श रुप से आलेखित करने लगा। अंत में दिखाया । उसे देखकर चंडप्रद्योत बोला :'हे उत्तम उसके नेत्रो का आलेखन करते समय तुलिका से मसी चित्रकार । तेरा चित्रकौशल्य वाकई विधाता जैसा ही है का एक बिंदु चित्र मे मृगावती की जांघ पर जा गिरा। - एसा मैं मानता हूँ। एसा स्वरुपइस मनुष्यलोक में पूर्व तत्काल चित्रकार ने वह पोंछा । दुबारा मसी का बिंदु कहीं देखने में आया नहीं है। है चित्रकार! ऐसीस्त्री कहाँ वहीं जा गिरा उसे भी पोंछा डाला। तत्पश्चात तीसरी बार है। वह मुझ सचमुच बता दे तो मैं तुरंत उसे पकड ले बिंदु गिरा देखकर चित्रकार ने सोचा, जरुर इस स्त्री के आऊ क्योंकि ऐसी स्त्री किसी स्थान पर हो तो वह मेरे उरु प्रदेश में लांछन होगा। तो यह लांछन भले हीरह, मैं लायक है।' राज के ऐसे वचन सुनकर, 'अब मेरा अब पोडूंगा नहीं। तत्पाश्चत् उसने मृगावती का पूरा मनोरथ पुरा होगा'- ऐसा मानकर चित्रकार ने हर्षित चित्र आलेखित किया। इतने में चित्रकार्य देखने के लिए होकर कहा, 'हे राजा | कौशांबी नगरी में शतानिक राजा वहाँ आया। चित्र देखते मृगावती के चित्र मे जाँघ नामकराजा है। उसकी मृगावती नामक यह मृगाक्षी शेर पर लांछन देवकर राजा एकदम क्रोधित हुआ और मन जैसे पराक्रमी की पटरानी है। उसका यथार्थ रुप से सौचा, 'जकर इस पापी चित्रकार ने मेरी पत्नी को आलेखित करने को विश्वकर्मा भी समर्थ नहीं है। मैंने तो भ्रष्ट की हो ऐसा लगता है, नहीं तो वस्त्र के भीतर के इसमें थोडारुपमात्र आलेखित किया है।' चण्डप्रद्योत लांछन को वह किस प्रकार जान सका?' ऐसा मानकर ने कहा, 'मृग को देखकर शेर जिस प्रकार मृगनी ग्रहण कोप करके उसका दोष बताकर उसे पकड़कर रक्षकों करता है उस प्रकार मैं शतानिक राजा के सामने उस के स्वाधीन किया। उस समय दूसरे चित्रकार ने कहा मृगावती को ग्रहण को करूंगा । यद्यपि राजनीति कोई यक्ष देव के प्रभाव से एक अंश देखकर पूर्ण स्वरुप अनुसार उसकी मांग करने के लिए प्रथम दूत भेजना ही यथार्थ रुप से आलखित कर सकता है। इसलिये . . योग्य है. जिससे मेरी आज्ञा माने तो कुछ भी अनर्थ इसका कोई अपराध नहीं है। 'उसके ऐसे वचन .. . नही होगा।' एसा विचार करके चण्डप्रद्योत ने से क्षढ़ चित्तवाले राजा ने उस उत्तम चित्रकार अपने दूत को समझाकर राजा के पास भेजा की परीक्षा करने के लिये एक कुबडी दासी ।उस दूत ने शतानिक राजा के पास जाकर का मात्र मुख दिखाया । उस पर से चतुर । कहा, 'हे शतानिक राजा ! चण्डप्रद्योत राजा चित्रकार ने उसका यथार्थ स्वरुप आलेखित कर आपको आज्ञा देते है कि तमने दैवयोग से मगावती दिखाया। यह देखकर राजा को भरोसा हआ लेकिन | देवी को प्राप्त किया है परंतु वह स्त्रीरत्न मेरे योग्य है, तू १७॥
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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