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________________ ACONOM/ONEINDAGAONOMONONOMINANCONOMONONOMONNONOMONOCONNONONOMonee HowwwwvoveovavraouravaoorvouToratio@@Haotaooooooo/UC000 पूल्य आयायीय श्री... श्रीन शासन (नधनाप्रतापी पुरषो)विशेषis.वर्ष: १५. ..ता. 25-11-२००२ A सुनना।' WE066060VGovGooUCoVE0C06OVESTOSTEVEMEEstestostestostostostsEETTERNETWOMCHदाह ३ दी..परंतु अभ्युत्थ नआदि किसी प्रकार का विनय नहीं || अपने प्रगुरुदेव के आगमन के समाचार से प्रसन्न हुए किया। सागराचार्य भी नगर मे से बाहर आए। धीर गंभीर कालिकाचार्य ने भी अपना कोई विशेष कालिकाचार्य के शिष्यों ने सागराचार्य और उनके परिचय नहीं दिया। शिष्यों को देखा। परस्पर मिलन हुआ। सागराचार्य ने कहा, 'कहां से आरहे रो?' उसके बाद कालिकाचार्य के शिष्यों नेसागराचार्य कालिकाचार्य ने कहा 'अवंतिसे' को पूछा क्या अपने गुरुदेव कालिकाचार्य यहां पधारे तत्पश्चार्य सागराचार्य अपने शिष्यो को वाचना देने हलगे, वाचना के बाद बुद्धिमद सेसागराचार्य ने वृद्ध मुनि सागराचार्य ने कहा, 'नहीं! अपने गुरुदेव को तो (कालिकाचार्य) को कहा, 'क्या कुछ समझ में आ रहा मैने नहीं देखा है। हाँ! अवंति से एक वृद्ध महात्मा जरुर पधारे है। हाँ! 'कहाँ है वे महात्मा?' ___ तो आगे जो श्रुतस्कंध पढाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सागराचार्य ने अपनी बस्ती में रहे वृद्ध महात्मा की ओर ईशारा किया। कालिकाचर्य मौन रहे। कालिकाचार्य के सभी शिष्य अपने गुरुदेव को इधर प्रात:काल होनेपर कालिकाचार्य के शिष्यों ने तत्काल पहिचान गए। उन्होने अपने गुरुदेव के चरणों में जब अपने गुरुदेवको नहीं देखा तो उन्हें अत्यंत ही पश्चाताप वंदन किया और अपने घोर अपराध की क्षमा याचना की। हुआ। उन्होंने शरयातर को पूछा, 'क्या आपने हमारे सागराचार्य को जब इस बात का पता चला कि गुरुदेव को देखा हैं ?' अहो! ये वृद्ध महात्मा तो मेरे प्रगुरुदेव कालिकाचार्य हैं, है शय्यातर ने कहा, 'तुम्हारे आचार्य ने तुम्हें कुछ नहीं उन्हे अपनीभूल पर अत्यंत पश्चातापहुआ उन्होने भी अपने ए कहा तो मुझे कैसे कहेंगे?' अपराधकी माफी मांगी। अपने गुरुदेव कीशोध के लिए शिष्यों नेचारो ओर उसके बाद विनम्र स्वर से सागराचार्य ने प्रगुरुदेव छानबीन की, कही नहीं मिलने पर जब शय्यातर को पुन: को पूछा 'मैं अनुयोग की व्याख्या बराबर कर रहा था?' पूछा तो शय्यातर ने कहा 'तुम्हारे जैसे अविनीत शिष्यों गुरुदेव ने कहा 'व्याख्या बराबर थी किंतु उसका गर्व मत को अनुयोग ग्रहण करने में प्रमादी जानकर, वे अपने करना।' प्रशिष्य सागराचार्य के पास सुवर्ण भूमिचले गए है।' सागराचार्य को प्रतिबोध देते हए गुरुदेव ने कहा सभी शिष्यो को अपनी भूल का तीव्र पश्चाताप 'मुठ्ठी भर धूल को एक स्थान से दूसरे स्थान से तीसरे ई हुआ। पुन: ऐसी भूलनहो, इस भावनासे उनसभी शिष्यों स्थान पर रखने से वह धूल कम होती जाती है, बस, इसी नेसुवर्णभूमि की ओर अपना विहार चालू कर दिया। प्रकार तीर्थंकरोसेप्रतिपादित ज्ञानगणधर...आचार्य आदि बीच मार्ग में जब लोग पूछते कि 'कौनसे आचार्य के माध्यम से अपने पास तक जो पहुँचा है, वह अल्प * भगवंत जा रहे हैं?' अल्पतर ही होता गया है।' सागराचार्य ने अपनी भूल तो शिष्य जवाब देते कालिकाचार्य।' स्वीकार की। कर्णोपकर्ण अपने विशाल परिवार के साथ वीरनिर्वाणसंवत् 465(लगभग) मेंकालिकाचार्य कालिकाचार्य के आगमन की बात सुवर्णभूमि में पहुँची। का स्वर्गवास हुआ था। . . . VoweAGDAMONIONS-MAHARMACONCONSINGINGING MONONCONNONONCONONCONOONGONDWANA MovGovococc.vovavicortGvocovcovova८०८oooooooooooooootc0000 Hosiestostestostestostostestosterotestostestostostatestatestaseseseseseases
SR No.537267
Book TitleJain Shasan 2002 2003 Book 15 Ank 01 to 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2002
Total Pages342
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size20 MB
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