________________
દ્વિગમ્બર—સમ્પ્રદાયકે સ
करते हैं । तब क्या इससे यह समझ लिया जाय कि चार नहीं किन्तु उक्त नन्दि वीर आदि नामके धारक दश संघ या गण स्थापित किये गये थे ?
૫૩૩
यदि इन्हें केवल ' नामान्त्यपद ' समझें तो जुदा जुदा संघोंकी उन उपाधियोंमें विरोध आता है जिनका उल्लेख ' भास्कर ' ने अपने चौथे अंकमें किया है और जिन्हें और भी बहुत से विद्वान् सच समझ रहे हैं। उनके विचारानुसार नन्दिसंघके आचायोंके नाम नन्दि चन्द्र कीर्ति भूषणान्त सेन संघके सेन राजवीर भद्रान्त देवसंघ देव दत्त नागतुगान्त और सिंहसंघ के सिंह कुम्भ आस्रव सागरान्त होते हैं । श्रुतावतार में इनमें से राज तुंग नाग कीर्ति भूषण आदि अनेकों का उल्लेख नहीं है ।
हम आशा करते हैं कि इस ओर विद्वानोंका ध्यान जायगा और वे इस विषय में विशेष छीन वीन करने का कष्ट उठायँगे ।
अब यह विचार करता है कि ये चारों संघ किस समय स्थापित हुए ।
श्रुतावतार के कथनका यदि यही अर्थ है कि अर्हद्बलि आचार्यने इन्हीं चार संघकी स्थापना की थी, तो इनके स्थापित होने का समय विक्रमकी तीसरी शताब्दिका उत्तरार्ध मानना चाहिए ! क्योंकि महावीर भगवानके निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद तक अंग ज्ञानकी प्रवृत्ति रही है और अन्तिम अंगज्ञानी लोहाचार्य थे। इन लोहाचार्य के बाद विनयंधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त ये चार मुनि अंगपूर्व के कुछ अंशोंके ज्ञाता हुए और उनके पीछे अद्वाले आचार्य हुए । यदि विनयंधर आदि चार मुनियों का समय ५० वर्षका मान लिया जाय तो ६८३+५०=७३३ वीरनिर्वाणके लगभग अर्हन्दलिका समय होगा और यही अर्थात् विक्रम संवत् २६५ संघोंके स्थापित होनेका समय माना जायगा । परन्तु मंगराज नामक कविके एक शिलालेख में जो शक १३५५ का खुदा हुआ है लिखा है कि भगवान् अकलंकभट्टके स्वर्गवास होनेके पश्चात् चारों संघोंकी स्थापना हुई है और मंगराज कविके इस कथनमें बहुत कुछ सत्यता मालूम होती है । क्योंकि हम देखते हैं कि अकलङ्कदेव से पहलेके विक्रमकी नववीं शताब्दिके पहलेके भगवती आराधना, पद्मपुराण, जिनशतक ( समन्तभद्रकृत ) आदि ग्रन्थों में तथा अकलंकदेवके समकालीन विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र,
१ इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार में स्पष्ट लिखा है कि अर्हद्वलिने नन्दि, सेन आदि चारों संघोंकी स्थापना की. 1२ देखो जैनसिद्धान्तभास्करका द्वितीय तृतीयाङ्क ।