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દિગમ્બર-સમદાયકે સ. प्रत्येक संघमें गण और गच्छ होते हैं। कुछके नाम ये हैं:नन्दिसंघमें बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और पारिजातगच्छ । सेनसंघमें सुरस्थगण और पुष्करगच्छ । सिंहसंघमें केनूरगण और चन्द्रकपाटगच्छ । देवसंघमें देशीयगण और पुस्तकगच्छ ।
ये चारों संघ क्यों स्थापित हुए अथवा इनकी क्या आवश्यकता थी इसका उत्तर इन्द्रनन्दि अपने ' नीतिसार' नामक ग्रन्थमें यह देते हैं कि “ विक्रमादित्य
और भद्रबाहुयोगीके स्वर्गवास हो जानेके बाद प्रजा स्वच्छन्दचारिणी और पापमोहिता हो गई। उस समय ब्रह्मनिष्ठ और परमार्थके ज्ञाता यतियों या मुनियोंमें भी 'स्वपराध्यवसाय' बहुत ही अधिक बढ़ गया। ('यह हमारा और वह तुम्हारा' इस तरहके संकीर्ण विचारों या परिणामोंको ' स्वपराध्यवसाय' कहते हैं । गरज यह कि मुनियों में अपने अपने समूहका या दलका मोह बढ़ गया-उनमें इस तरहकी उदार-हृदयता न रही कि सब ही मुनि हमारे हैं।) तब निमित्तशास्त्रके अग्रणी विद्वान् अर्हदलिने संघोंकी स्थापना की।" ___ यही बात 'श्रुतावतार' नामक ग्रन्थमें और भी स्पष्टरूपसे कही गई है। उसमें लिखा है कि " अर्हद्वलि आचार्य प्रति पाँच वर्षमें सौ योजनके भीतर रहनेवाले मुनियोंको एकत्रित करके युग-प्रतिक्रमण कराया करते थे । एक बार उन्होंने युगप्रतिक्रमणके समय आये हुए मुनियोंसे पूछा-' सर्वेप्यागता यतयः' अर्थात् सब मुनि आगये ? इस पर उन्होंने उत्तर दिया- 'वयमात्मात्मीयेन सकलसंघेन आगताः' अर्थात् हम सब अपने अपने संघ सहित आ गये । यह सुनकर आचार्य महोदयने सोचा कि अब यह जैनधर्म गणपक्षपातके भेदोंसे ठहरेगा उदासभावसे नहीं और तब उन्होंने संघोंकी स्थापना की," ___ संभव है कि जिस समय ये संघ स्थापित हुए थे उस समय इनमें कुछ मतभेद रहा होगा 'श्रुतावतार' के शब्दोंमें कमसे कम गणपक्षपात या संघपक्षपात अवश्य रहा होगा; परन्तु आगे वह भेद या पक्षपात विशेष नहीं बढ़ा और इस कारण इन संघोमें आचार विचार सम्बन्धी या तत्व सम्बन्धी भेद न पड़ा । नीतिसारमें लिखा है कि:
गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः। न तत्र भेदः कोयस्ति प्रव्रज्यादिषु कर्मम् ॥ ८॥