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दिगम्बर-सम्प्रदायके सङ्क।
भरते पञ्चमे काले नानासङ्घसमाकुलम् । वीरस्य शासनं जातं विचित्राः कालशक्तयः ॥
-इन्द्रनन्दि । यह बात निर्विवाद है कि भगवान् महावीर तीर्थकरके समय एक अविभक्त जैनसम्प्रदाय था उसमें संघ, गण गच्छ या पन्थभेद नहीं हुए थे। उस समय और उसके कई सौ वर्ष बाद तक इस धर्मके नेता बहुत उदार, सरल और मन्दकषायी रहे, इस कारण यह जीवमात्रका उपकार करनेवाला सार्वजनिक धर्म रहा और इसमें किसी तरहकी भेदकल्पना नहीं हुई, परन्तु आगे अन्य धर्मोके समान इसकी भी अवस्था हुई और नेताओंके मताग्रह पक्षपात आदिके कारण यह धीरे धीरे अनेक भेदोंमें विभक्त हो गया।
सबसे पहले इसमें दो बड़े भेद पड़े जो आज तक बने हुए हैं और जिनके कारण इस महान् धर्मको सबसे बड़ी हानि पहुँची है । ये पाठकोंके बहुत ही परिचित दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय नामके भेद हैं। दोनों सम्प्रदायोंकी कथा
ओंके अनुसार विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद इनकी पृथक् पृथक् स्थापना हुई है । ये दो भेद किस कारण हुए, इसका सन्तोषजनक उत्तर दोनों ही सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे नहीं मिलता है । जो कारण बतलाये जाते हैं वे एक दूसरेको नीचा या निन्द्य ठहरानेके लिऐ गढ़े गये जान पड़ते हैं। वास्तविक कारण ढूँढनेकी ज़रूरत है और इसके लिए इतिहासका विद्वानोंका खास तौरसे प्रयत्न करना चाहिए।
ये दोनों सम्प्रदाय श्रीसंघ और मूलसंघके नामसे भी प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर अपनेको मूलसंघी कहते हैं। इस लेखमें हम केवल दिगम्बर सम्प्रदायके भेदों और उपभेदोंका विचार करना चाहते हैं:
___ मूलसंघ और उसके भेद । मूलसंघमे मुख्य चार भेद हैं:-१ सिहसंघ, २ नन्दिसंघ, ३ सेनसंघ और ४ देवसंघ । सेनसंघको वृषभसंघ भी कहते हैं ।