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________________ શ્રી હરિભદ્રસૂરિક જીવન-ઈતિહાસકી સંદિગ્ધ બાતે. ૪૯૭ प्रकरणकृत् श्रीहरिभद्रसूरयोप्याहुर्ललितविस्तरायाम ” इस प्रतिक्रमण अर्थदीपका के वचन से तथा प्रसिद्ध से ऐसा कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्रसूरिजीने १४४४ ग्रन्थ बनाये । “ पुनरपि च शतोनमुनधीमान् प्रकरणसार्धसहस्रमेष चके" " चतुर्दशप्रकरणपोतुंगपासादसूत्रणेकसूत्रधारः" इत्यादि उल्लेखों से आपकी कृति के ग्रन्थ १४०० है यह सूचित होता है। राजशेखरसूरि कृत चतुर्विंशति प्रबन्ध में आप को १४४० ग्रन्थों के कर्ता लिखा है। इन तीनों ही पक्षों की समालोचना इस प्रकार हो सकती है-आप के ग्रन्थ दो तरह के दृष्टिगोचर होते हैं, 'विरहाङ्कः ' से युक्त और उससे रहित। इस का कारण यह माना जाता है कि हंस और परमहंस का विरह होने के बाद की आप की कृति 'विरह अंकित ' है, यही वात प्रभावकचरितकर्ता " अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोमिभरेण तप्तदेहः । निजकृतिमिह संव्यधात्समस्तां विरहपदेन युतां सतांस मुख्यः॥ __. इस पद्य से सूचित करते हैं और उनकी पूर्वकालकी जो कृति है वह विरहशब्दरहित है। जो जो १४४४ संख्या प्रतिपादक प्रमाण हैं वे पूर्वोक्त दोनों पंक्ति के ग्रन्थों के संमेलन से हैं, यह बात भी ''पुनरपि च शतोनमुग्रधीमान" इस में रहे हुए ' पुनः' शब्द से सूचित होती है। वास्तव में यह है भी योग्य, हरिभद्रसरीखा विद्वान् नर हंसपरमहंस के अवसानसे पहले ग्रन्थ न बनावे यह असंभव सा मालूम होता है। __ यद्यपि प्रसिद्धि यह है कि “ आचार्यहरिभद्रजीने उन १४४४ बौद्धों को मंत्रशक्ति से मारने का संकल्प किया; जो हंस-परमहंस के पीछे आये थे, इस बात का उन के गुरु को पतामिलते ही अपने पास से दो साधुओं को भेज के " गुणसेण-अग्गिसम्मा" इत्यादि संग्रहगाथाएं सुनाई, तब हरिभद्रसूरि का कोप शान्त हुआ, आपने पूर्वोक्त अपने संकल्प का प्रायश्चित्त मागा, गुरुजी ने उस अपराध के प्रायश्चित्त के स्थान १४४४ ग्रन्थ बनाने की आज्ञा दी और आपने गुरु वचन को शिरसा वंद्य समझ उस के अनुसार ही कार्य किया." परंतु प्रभावकचरित का इस विषय में और ही कथन है, वह कहता है-आचार्य हरिभद्र का चित्त अपने दो प्रिय शिष्यों के वियोग से हमेशाह संतप्त रहता था इस कारण उनका
SR No.536627
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1915 07 08 09 Pustak 11 Ank 07 08 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1915
Total Pages394
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size11 MB
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