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શ્રી જન ધે. કે. હરડે.
दूसरा पक्ष कुछ ठीक है, 'हरिभद्र जिनभट के शिष्य थे, यह प्रायः सभी को मान्य ही होगा, क्यों कि "कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभट्ट (ट पाद सेवकस्याचार्य हरिभद्रस्य " इत्यादि हरिभद्री ग्रन्थों के प्रान्तलम्व तथा "जिनभटसूरिमुनीश्वरं ददर्श' इत्यादि चरितग्रन्थों के उलग्व देखने से निश्चित होता है कि आचार्य हरिभद्रजी के गुरु जिनभटसरि थे। मेरा भी पहले इसी पक्ष पर दृढ विश्वास था, परंतु जब से इन प्रमाणों से भी अधिक बलवान तीसरे पक्ष को सिद्ध करनेवाला प्रमाण दृष्टिगत हुआ तो पक्ति द्वितीय पक्ष की मान्यता मुझे शिथिल करनी पड़ी। वह प्रमाण यह है "समाना वयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानु. सारिहणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यम्य धर्मतो याकिनीमहत्तरामूनोल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य। " यह पाट आवश्यक टीका का है । इस से यह बात पाई जाती है कि हरिभद्रसरि विद्याधर कुल के आचार्य जिनदत्त के शिष्य और जिनभटसरि के आज्ञाकारी थे।
अत एव आपने जगह जगट जिनभटसरि के साथ शिष्य' शब्द का प्रयोग नहीं करके 'सेवक' शब्द का व्यवहार किया है। यद्यपि प्रभावकचरित में स्पष्टतया आपको जिनभट का शिष्य लिखा है पर उसका रहस्य और है जिनभटनिगदानुसारिणः" इस विशपण से ऐसा अनुपान होता है-शायद जिनभटमृरि आप के विद्यागुरु होंगे या आप के गुरु के गुरु या गुरुम्राना होंगे, इसी लिये “ जिनभटपादसेवकस्य" इत्यादि विशेषणों के द्वारा बापन उन के साथ गुरुबुद्धि से वर्ताव किया है। संभव है इन्ही विशेषणों से प्रभाचन्द्रमरिजीने आप को जिनभटसरि के दीक्षित मान अपने ग्रन्थ में तदनुसार लिख दिया है।
वास्तव में आप जिनभट के नहीं किंतु जिनदत्त के शिष्य थे. इस बात को अब विना माने नहीं चलता। पूर्वोक्त आवश्यक टीका के पाठ के क्षेपक होने की भी शंका 'अल्पमतेः ' इस प्रयोग से निरस्त हो जाती है। पूर्वोक्त प्रयोग हरिभद्रसूरिजी के खुद के बिना किसी के मुंहसे निकलना असंभवित है. इस बात को पाठक महाशय बग्वबी समझ सकते हैं।
दूसरी संदिग्ध बात आप के ग्रन्थों की संख्या के विषय में है-..१४४४