________________
४४९
જેન કૅન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मिति मे सब्बे भूएसु, वेरं मज्झं न केणई ॥ मैं सर्व जीवोंसे क्षमाभाव करता हूं. हे सर्व जीवो ! तुम मेरेसे क्षमा करो. क्यों कि मेरा सर्व भूतों (जीवों) से मैत्री भाव है और मेरा वैर भाव किसीके साथ नहीं है. देखिये कथन मात्रमें तो कैसी नम्रता है, अपितु द्वेषके प्रभावसे एक दूसरेसे मिल नहीं सकता. तथा ऐसा कथन होने परभी परस्पर वार्तालाप नहीं कर सकते.
विद्वज्जनों ! यदि जैन मतकी तीन ही शाखें परस्पर द्वेष भावको तिरस्कार करके पुनः तीन ही शाखें मिलकर जिन मत तथा श्रुत ज्ञानका पुनरुद्धार करें तो जैन मत शीघ्र ही उदय भावको प्राप्त होवे पुनः देखिये. तीन ही शाखोंका मूल सिद्धान्त एक है। जैसे कि 'पञ्चास्तिकाय, काल द्रव्य, नव तत्त्व, प्रमाण, "नय, पञ्च "ज्ञान, तीन लोक इत्यादि.
किन्तु क्रियाभेद वा श्रद्धाभेद अवश्यमेव ही है. इस लिये, हे जैनमतोनतिइच्छको ! अपने मूल सिद्धान्तको ही ग्रहण करके परस्पर प्रेम भावके साथ वर्तना योग्य है. तीनो शाखोंको चाहिये कि ऐसे २ प्रस्ताव बान्धे जिससे प्रेमभावकी वृद्धि हो तथा निन्दायुक्त लेख ना मुद्रित हों और ना किसीको निन्दार्थ कटिबद्ध कराया जावे. . सुज्ञ पुरुषो! क्या आपको जिन मतकी पूर्वावस्थाको देख कर दुःख नहीं होता है कि जिन मार्ग परम सुन्दर होते हुए स्वद्वेषके प्रभावसे आज दिन इस बहुतसे अज्ञात जन ऐसे भाषण करते हैं कि जैन मार्ग नास्तिक तथा अशुचिका मत है इत्यादि.
. _ ऐसे २ वचन अन्य मतावल बियोंके मुखसे श्रवण करना वह क्या स्वद्वेष तथा निन्दायुक्त लेखोंका ही प्रभाव नहीं ? अर्थात् अवश्य उसीका फल है. शोककी वार्ता है कि एक तीर्थकरको पुत्र होने पर भी परस्पर यह वर्ताव ? सूत्रोंमें ऐसे . लेख है, यथा ( उववृह ) गुणोंका वृद्धि करना, (थिरिकरण ) अर्थात् धर्मसे पतित होतेको पुनः सत्य मागमें स्थिर करना, ( वच्छलप्पभावणा) वत्सलप्रभावना, इत्यादि अवश्यमेव धारण करने चाहिये.
१ धर्माधर्माकाश पुद्गल जीवास्ति कायाः २ जीवाजीवपुण्यपापासवबंध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्. ३ प्रत्यक्षानुमानोंप माऽगम प्रमाणा: ४ नैगम संग्रह व्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढएवं भूतेति ५ मति श्रुतावधिमनःपर्यवकेबलानि. ६ उधोमध्येति लोकाः