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एक आश्चर्यजनक स्वप्न.
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नव २ लाख रुप्योका द्रव्यथा जब कभी कोई गरीब जनी उनके नगरमें चला आता तो एक २ घरसे एक २ रुप्या एक २ इंट तथा एक २ सागटी आदि देकर अपने बराबरका बनाकर एक मोटी हवेलीमे आबाद करदेते थे. धन्यहै २ ऐसे महासियोको. हे वत्स, देख उन्होंने कैसा रास्ता निकाला कि किसीको भी भार नहीं पड़ते हुवे काम बन जाताथा. सचहै, " पंचकी लकडी और एकका भार" अफसोस! अब इस बातका है कि उन महानुभावो के ओलादकी आज क्या दशा हो रहीहै.
हे सुज्ञ पुत्र, यदि जैनियोके दिलमे करुणा होगी तो अवश्यमेव वे मुझ दुःखियाके दुःखको काटेंगे अर्थात् कठोरताको त्यागकर अपने चित्तमे कुछ करुणा पैदा करेंगे. . हे तनय, जबकि लोगोका चित्त अपने स्वधर्मी भ्राताओके तर्फ भी नहीहै तो दूसराका दुःखतो काटने का समर्थ होही कैसे सक्ते हैं. - हे पुत्र, मै अपना दुःख कितनाक जाहिर करूं, चाहे कितनाही उपदेश क्यों न दिया जाय मगर कुलिशोपम कठोर हृदय वाल कइयेक जैनियोंके चित्तमें कुछभी असर नहीं करता और अखीर छारपर लिपनेके मुवाफिक नतीजा होताहै. . . .
हे प्रिय पुत्र अंगज, तूं थोडेमें जादे समझ लेना अब जादे कहने में कुछभी फायदा नही समझना. सच पूछे तो जहांतक मुझे धारन नहीं करेंगे तहांतक लोग जैनी होनका दावा कदापि नही करसकेंगे.
__मैः-हे मातेश्वरी, मैने खुब समज लिया है अब आप अपने आसनपर बिराजियेगा, सबब कि मुझ कुछ हाल मैरी मध्यस्थ मातासेभी पूछना है.
(तत्पश्चात कारुण्य माता अपने आसनपर वैठ गई.) तब मै चौथी मध्यस्थ मातासे करजोड कर सविनय बोला,
अपूर्ण