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________________ २३४ ] જૈન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ. [ સપ્ટેમ્બર वेश्याका नाच हे वत्स! शादी के वक्त जो वेश्याका नाच होता है वह कितना अनर्थकारी है यह बात अस्प बुद्धिवाले पुरुषभी जान सक्ते हैं. यह तो सर्व लोगोंको भली प्रकार विदित होगा कि अपनी लक्ष्मी जो अपन सुमार्गमें खर्चेगें तो पुण्यका बंधन तथा कुमार्गमें खचेंगे तो पापका बंधन होगा; अब बताना चाहिये कि वेश्याके पास जितना अपना पंसा जाता है, क्या सुमार्गमें लगता है !. नहीं, नहीं, कदापि नहीं, अरे, जितना पैसा उस कुट्टनीको दिया जाता है, एकान्त अशुभ कर्म बंधनका हेतु है. भाई वह गणिका स्वयं मय अपने तबले व साजके धिक्कार देती है। इस बातपर एक कविने कहा है:- . कवित्त सुकाज को छोड़ कुकाज करें, धन जात है व्यर्थ सदा तिन कों; एक रांड बुलाय नचापप्त हैं, नहीं आवत लाज जरा तिन कों। मदंग भणे धिक् है, धिक्के, सुरताल पुछे किनकों किनकों; तत्र उत्तर रांड बतावत है धिक्है इनको २ इनकों ॥ १ ॥ अफसोस २ इस प्रकार धिक्कार देनेपर भी लंबे २ आवाज करके बोलते हैं " वाह, वाह, क्या उमदा गजल गाई है, क्या उमदा दादरा गाया है;" अरे जैनियों अबतो सोचो, अरे भाईयो अक्तो बिचार करो, क्यों केवलमात्र फिजूल खर्चा करके इस लोकमें कंगाली तथा परलोको दु:खके भागी होनेका प्रयत्न करते हो? हे प्रियपुत्र ? कई अक्लके, अन्धे कहदेते हैं कि हम वेश्यागमन नहीं करते हैं, । परन्तु नचवानेमें क्या हर्ज है ? यह कहना केवलमात्र उनकी मूर्खताको. जाहिर करता है सबब कि जो उनकों नचवाल उनके हाव भाव कटाक्षादि न देखा जावे तो क्योंकर उनके यहां जानेकी इच्छा प्राप्त हो; तब तो निश्चय होगया कि वेश्याका नचाना यह एक महान् दुष्ट कर्तव्य है. आतशबाजी छोडना. हे सज्ञ पुत्र ? इस रिवाज को चर्चते हुवे मुझे बड़ा शर्माना पड़ता है कि जैनी लोग जो कि. " अहिंसा परमो धर्मः का दावा रखते हैं, इस कार्यकों करते हुवे क्यों नहीं शर्माते. है भाई ! छोटे. २ जीवोपर मेरे जैनी भाई बहुत करुणा बताते हैं, परंतु इस परसे तो निश्चय होता है कि वे केवलमात्र बाह्याडंबरसेही दया दिखलाते होंगे, क्यों कि जो अन्तरंग दया होती तो अवश्य इस दुष्ट रिवाजका नहीं करते. हे वत्स देख एक अंग्रेजी कविने जीवोंको बचानेके निमित्त कैसी कविता कही है: Turn turn thy hasty foot aside, Nor crush that helpless worm, The frame thy scornful thoughts deride, From God received its forin. 1.
SR No.536506
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1910
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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