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________________ જેન કોન્ફ્રન્સ હેરલ્ડ, बदला लिया कबका पिताने । सुखसे मुझको दी रजा ।। मै तो हूं परवश सब तरांसे । इश्वरदे तुझको सजा || ६॥ ब्रिटिश अमलदारिके अंदर । पाता सुख संसार है । सुनो आजकल स्त्रीयोंपर । यह दुःख अति अपार है ॥ ७ ॥ जाकर की एलेग्झेन्ड्रा से हमारी । सत्र विपत कहदे कोई | भारतकी आधी स्त्रीयां । विक करके विधवा होगई ॥ ८ ॥ करके मुझे अधमरी । डालो कुवेमें काटकर | जानाश तैरा अब पिता । मेरा पडे तुझपर सबर || ९ || इति ( लुन इस गायनको गाते २ मैत्री माता अचेत होगई; तब मैंने बडे प्रयत्नके साथ उसे चेत की, उस वख्त में वह बडे २ निश्वास भरती हुई बोली: -- हे वीर परमात्मा ! क्या तेरेही शासनके श्रावकोपर ऐसी आफत आनाथी ? हे करुणा धान, आजकल लडकियें तो प्रामेसरी नोट ( Promisary notes ) सके सद्रश होगई इतन ही नहीं बरना प्रतिवर्ष पर रुपयोंका सेंकडा चडता जाता है. है जगदाधार, तुम तो क्षमें पहुंच गये, और हमारी कुछभी दया नहीं देखते हे वीतराग प्रभो इन दुष्ट बातम मारे जैन भाईयों की प्रवृत्ति निकाल ! ! ! ( कुछ देर सोचकर ) अरे मैं क्या बोलीवीर रमात्मा, जो के अपने स्वरूप में लीन हो गये हैं क्या कभी हमारी तर्फ तवज्जे देंगे? नहीं नहीं ! उन परमात्माको हमसे कुछभी मतलब नहीं, हे पवित्र मुनिवरो, तथा सती साधवीओं, आपतो उन कन्याविक्रय करनेवाले ष्ट पुरुषों के वहांकी तो गौवरी तक अंगीकार नहीं कीजियेगा. क्यों वत्स ! समझमे आयान ? मै- हां मातेश्वरी, खूब समझ लिया परंतु अब इसका उपाय क्या सो तो बताओ. मैत्री - हे भाई! सच पूछे तो अब लडकियोंको चाहिए कि, शर्म छोडकर अपनी च्छानुसार ( स्वजाति तथा विधी सहित ) पति करें मै तो उस लडकीको पसंद करती हूं जेसने कि एक वख्त उसके पिताको बहुत शर्म दिलवाई थी. मै-हे सदाचारिणी मातेश्वरी ! वह कौन लडकी थी और उसकी क्या घटना हुई सो पाकर कहियेगा. मैत्री - हे भई, एक साहुकार के एक चौदा वर्षकी लडकी थी. जब कि वह शादीके योग्य हुई तो उसके पिताने प्रथम तो १०० रूपे लिये और बादमे आरती की वख्त ३०० रुपे
SR No.536506
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1910
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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