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________________ ३६.४ जैन कॉनफरन्स हरैल्ड. [ नवेम्बर रही; इसी के साथ साथ दूसरा काम तीर्थके उन्नति के बावत था चुनाचे जोजो बातें काविल इन्तजामके देखी गई उनको हरसाल सभा में पेश करके सभाका ध्यान उस तरफ खेंचा गया. यात्रियोंके उतरने के मकानोंकी कमी थी उसके वास्ते चंदा करके रहने के वास्ते मकान बनवाये गये, श्री जैन श्वेताम्बर कोनफरन्सके लिये कोशिश करके इस महा सभाको इसही तीर्थ भूमीपर शुरू किया गया परन्तु इन कामों में फसे रहने से मन्दिरके हिसाब किताबकी परतालकी कार्यवाही तक नहीं हो सकी हालांकी मेडता के संवने हिसाव तय्यार करके परताल कराके इकरार किया है. अबतक मन्दिरके रंग रीपेयरकी तरफ तवजह होलकी थी हालाँके प्रथम कोनफरन्सका एक प्रस्ताव इस विषय में पास भी हो चुका था परन्तु खुशीका मोका हैं कि इस साल नीचे मूजिब उन्नति देखने में आई : १. श्री पार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमा बेलूरेतकी है उसपर लेप हुवा करताथा परन्तु आजकल यात्रियोंकी जियादा धूमधाम रहनेसे प्रतिमामें कई जगह खडे पड गये थे. अगरचें प्रभूके सोनाकी आंगी मोजूद है परन्तु वह मेडता रहती है और सिर्फ उत्सव के दिनों में धारण कराई जाती है इस लिये अब यह इन्तजाम किया गया है कि पक्षाल होकर अंग पूजाके पश्चात् फोरन ही आंगी धारण करादी जाये इसवास्ते नई रूपेरी आंगी तय्यार कराई गई है, और वह हमेशा धारण होती है जिससे प्रतिमाकी पूरी हिफाजत रहती है. २. कगली प्रतिमाओं और शान्तीनाथ स्वामीके मन्दिरमें चोमुखजीके वास्ते रूपेरी aitri तयार होगई हैं. ३. पहिले किसी प्रतिमा चक्षू थे किसीके नहीं थे किसीके एकही चक्षू लगा रह गया था अब कुल प्रतिमाओं के चक्ष चढा दिये गये हैं. ४. मूल गभारेमें रंगत और काचका काम होगया है कि जो बहुत मनोहर है और यात्रियों के दिलोको आकर्षण करता है. यह काम रंग मंडप और सभामंडपमें भी होजानेसे मन्दिरकी छवि बहुत अच्छी होजावेगी. ५. पहिले रंग मंडपके दोनों वगलों में आलियों के अंदर प्रतिमायें विराजमान थी परन्तु उनके आड़ा कोई कंवाड वगरह नहीं थे. उत्सवके समय हजारों मर्द औरत हरतरहकी समके इकट्ठे होते थे उनमें से कई औरतें प्रभूकी प्रतिमापर चढी हुई कैशरको अपने हाथसे उतार कर जिस तरह भैरव, देवी वगरहकी मूर्तिपरसे सिन्दूर उतार कर टीका कर लेते हैं वैसे ही उस केशरका टीका करलेती थी, इस औरतों की वे समझसे पूरी पूरी अशातना होती थी अव्वल तो बिना न्हाये धोये स्त्रियां प्रतिमांको स्पर्श करती थी. दूसरे प्रभूपर चढी हुई केशरको उतारकर उसका चांदला करती थी. अब इस अशातनाको टालने की गरज से दोनों आलियोंके तानदार कपाट लगा दिये गये हैं जिससे प्रभु के दरशणभी होजाते हैं. और अब वह अशातना भी नहीं होती है.
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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