________________
१९०५ ] श्री जैन श्वेताम्बर सुकृत भंडार.
३३१ काभी आश्रय अर्थात् सहारा न हो यानी निसका पालन पोषण और सहायता करनेवाला इस संसारभरमें कोईभी न हो, ऐसे प्राणी यदि गृह हीन, उद्यम हीन, अन्न अर्थात् भोजन हीन और वस्त्र हीन हों तो जिसको निस २ बस्तुकी आवश्यक्ता हो और वह स्वयम् उसको किसीभी तरहसे प्राप्त नहीं कर सके तो उसको उसीही वस्तुकी सहायता अवश्यमेव देनी चाहिये, और धर्म और विद्यामें प्रतिदिन तत्पर रखनेका सुप्रबंध रखना चाहिये इसीहीको जैन सिन्हान्तोंमें यथार्थ 'स्वामी वत्सल ' अर्थात् सहधर्मी भाइकी सुश्रुषा अर्थात् सेवा करना कहते हैं. यदि सच्चे जैनी भाई उपरोक्त यथार्थ 'स्वामी वत्सल' के करनेम अथवा उद्योगके हेतु तन, मन, और धनसे सहायता देने कटिबद्ध न हों तो उनका जिन मार्गपर यथार्य चलना और सच्ची जीव दया पालना कैसे कहा जाय? अतएव प्रत्येक. जैन हितेषीको यही उचित है कि उपरोक्त निराश्रित् जैनको अपने तन, मन और धनसे प्रतिपालन करें अथवा स्वयम् करनेमें असमर्थ हो तो निराश्रित् जैनके पालन पोषणके उद्योगमें यथाशक्ती तन, मन और धनसे सहायता तो अवश्यमेवही दे, ऐसे कार्योंमें सहायता देनेवाले महान पुण्यके अविकारी होते हैं ऐसा जैन आगमोमें स्पष्ट वर्णन है. पञ्चम-वियोमत्ति-विद्याकी उन्नत्ति अर्थात् स्वज्ञातीमें विद्याकी बढोतरी अथवा बाहुल्यतासे प्रचार करना, जिससे इस लोकके और परलोकके सर्व दुर्भेद्य कार्य सुगमतासे सम्पादन हो सक्ते हैं, क्यों कि विद्याहीके बलसे धार्मिक तथा सांसारिक सर्व कार्योका रहस्य मालूम हो सक्ता है, विना पदार्थके यथार्थ ज्ञान हुए उसकी बुराई और भलाईकी परीक्षा नहीं की जा सक्ती, अतएव विद्याही एक मात्र मनुष्यका भूषण और स्वरूप है, विना विद्या मनुष्य मात्र पशुके समान है केवल अन्तर इतनाही रहता है कि 'मनुष्यके दादी
और मूंछ और गाय, भैंस आदि पशुओंके सिंग और पूंछ.' और विद्या तो सर्व सद्गुणोंकी माता और खान है जैसे बालक माताके उदरसे उत्पन्न होते हैं वैसेही सर्व सद्गुण विद्या रूपी माताहीके उदरसे जन्म लेते हैं नतु अन्य रीतिसे; अब विद्याके किंचित् मात्र गुणोंको यहां लिखता हूं:(१) प्रत्येक पदार्थका यथार्थ ज्ञान प्राप्त होना, (२) मोक्षका मार्ग बतलाना, (३) स्वर्गकी
राह दिखलाना, (४) व्यापारका यथार्थ स्वरूप जानना, (५) द्रव्योपार्जन करना, (६) सतसङ्गतिका प्राप्त होना, (७) माता पिताका विनय करना, (८) सच्ची बीरताका प्राप्त होना, (९) न्यायके पंथ पर चलना, (१०) अन्यायका त्यागना, (११) कुव्यसनोको छुड़ाना, (१२) नीतिके सर्व भेद जैसे युद्ध, संधि, मित्रलाभ, शत्रुभेद, और साम, दाम, दंड, मेद, आदिको जानना, (१३) आदर और सन्मानका पाना, (१४) दुराचारोंसे बचना, (१५) मनुष्य अपने सारे अमूल्य