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________________ २७० - जैन को नफरन्स हरेह. [ऑगष्ट नजदिक मैठकर श्वेनन करना उचित नहीं इसका सबब स्पष्ट है कि एक दूसरेके स्वभावमें बहुत अंतर रहता है और एक दूसरेको स्पर्श करवेसे एक प्रकारकी आकर्षण शक्ती पैदा होती है और प्रत्येक मनुष्यके शरीरसे एक प्रकारकी विजली निकलली है जिसके द्वारा नजदिकके जीवधारीयोंकी उतमता नीचताका असर दूसरोंपर पडता है इससे यह स्पष्ट जाहिर होता है कि नीच पदार्थोके खानेवालोंके पास खडा रहनाही प्रशंसनिय नहीं है इस वातपर बहुत डाक्तरलोक और वैज्ञानिक लोग अपनी २ सय दर्शाते है और यूरोप अमेरीका आदि स्थानोमें ( Vegitarian Societies ) स्थापितकी जा रही हैं. इसी प्रकार बहुतसे रोग स्पर्श मात्रसेही लग जाते है-दाद, खुजली, कोड, सुजाक गर्मी आदि यह सब नीच संगती और स्पर्शास्पर्शका फल है. इस लिये हे भ्रातृगणों ! आप लागे तनक विचार कर सोचिये कि हम लोगोंको अपने चाल चलन और खानपान पर ध्यान देना कितना जरूरी है. जहां तहां खडे २ जूता पहिने तेली तंबोलीआदि हलवाईके हाथकी हर एक चिन विना जात पात पूछ विना सोचे समझे खा पी लेते हैं. थोडासाभी ध्यान नहीं देते जो महाराय अपनेको जैनी कहलानेका दावा रखते हैं वै थोडाला वै वै जैन मतके पवित्र नियोंको धारण कर इन प्रमाणों द्वारा अशुद्ध भोजन और संगतीके त्यागी होंगे. .. सम्पूर्ण जाति भाइयोंसे मेरी सादर विनय है कि हे महाशयों, अपवित्र अशुद्ध भोजन करना कोई जाति रिवाज और देश रिवाज नहीं है, किन्तु हमारी जडताका कारण है. अतएवः इसे इस पवित्र जातिसे निकालनेका प्रयत्न किजिये. || श्री ॥ मुनी विहारके दोहे. हेममुनि महाराजने, माल पुराके माहिं; ज्ञान दिवाकर उदय कर, भ्रम तम राख्यो नाहिं. जैन धर्म उपदेश सुन, श्री मुखसे बहु लोग; सत्य समजु निज मन विमें, त्यागे कुत्सित भोग. परम सुहावन सकल जन, मन भावन उपदेश; सुन २ श्री मुनिराज कर, उपजा प्रेम विशेष. १ २. ३
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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