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________________ १९.५ .. ... जैन समुदायके मुख्य कर्तव्य. जैन समुदायके मुख्य कर्तव्य. हिन्दुस्थानके पृथक् २ स्थलोंसे कुल जैन समुदायके चुने हुये प्रतिनिधियोंके तीन चार दिन तक एक नियत स्थानपर एक बर्षमें एकबार मिलकर अमुक ठहरावोंको पास करनेसे और बक्तावोंके सिर्फ मनोरंजन भाषणोंके सुननेसे जाति और धर्मकी चाहीं हुई उन्नति नहीं हो सकती है. चार पांच हजार प्रतिनिधियोंका अथवा इससे कमज्यादाका कोनफरन्स मण्डपमें एकत्र होना आपसके सम्पकी सूचना देता हुवा इस बातको अवश्य सिद्ध करता है के इस समयके जैनधर्मानुयायीभी अपने धर्माचार्योंके सदुपदेशके अनुसार देश, काल, भावको देखकर बर्तते हैं; और जिस तरहपर अन्य २ जातियोंने इस प्रतिनिधिपनाको ग्रहण करके सुधारे बधारे किये हैं वैसेही जैनसमुदायभी इसके लाभोंके अनभिज्ञ नहीं हैं. भूतकालम बडे २ राजा, महाराजा, मन्त्री, सेठसाहूकारोंके अन्तःकरणसे धर्मानुरागी होनेके कारणसे और जैनधर्मोपदेष्टावोंका ज्ञानबल अधिक होनेके सबबसे स्वच्छ जैनधर्मकी ध्वजा पताका भली प्रकारसे सब जगह फरकतीथी उस समय न किसी सुधारेकी आवश्यकता थी, न कोई ऐसे रीतिरिवाज प्रचलित थे के जिनसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके साधनोंमें किसी प्रकारकी हानी पहुंचती हो. परन्तु जमाना बदलता रहता है, और इसही तरह रीतिरिवाज बर्ताव वगैरहमेंभी बदलाबदली होती रहती है. इस समय जैनी राजा महाराजावोंका अभाव, जैन धर्मानुरागियोंका प्रायः करके राजकीय उच्चपदसे भ्रष्टता, लक्ष्मी और सरस्वतीकी असन्तुष्टता, धर्मशास्त्रोंकी कई कारणोंसे लुप्तता, धर्माचार्योंका सङ्कोचित ज्ञानबल, उनका खास २ जगह बिहार, श्रावकोंका स्वधर्मके बिरुद्ध आचरण, स्त्रियोंकी अज्ञानता, खोटे रीतिरिवाजोंकी प्रचलितता, माया, ममता, ईर्षा, द्वेषका बढना इत्यादि कारणोंसे जैन कोमकी वह दशा होगई है, कि जिसको फिर मार्गमें लाकर असली हालतमें युक्त करना हर सच्चे जैनीका परमोत्कृष्ट धर्म है. इसही ख्यालसे बुद्धिमानोंने महासभाके द्वारा अपने कोम और धर्मकी तरक्की करनेपर कमर बान्धी है, और कुल समुदायनें उनके विचारोंके साथ सम्मति करके उनकी हिम्मत बढाई है; परन्तु प्रतिनिधियोंके सिर्फ एक बर्षमें एक बार के मिलनेसे जो २ कार्य बिचारे गये हैं उनकी सिद्धि असम्भव है. इसके लिये चार जनरल सेक्रेटरीभी स्थापित किये गये, परन्तु वे भी अपने २ स्थानमें बैठे हुवे जैसी के चाहिये तरक्की नहीं करसकते हैं. और जो पांच खाते-केलवणी ( विद्याप्रचार ), निराश्रिताश्रय, जीर्णमन्दिरोद्धार, पुस्तकोद्धार, जीवदया-कोन्फरन्सकी तरफसे खोले गये हैं और जिनके लिये एक लाखसे कुछ कम ज्यादा मुद्रा इकट्ठी हुई है जिसमेंसें हर खातेमें अबतक उन खातोंमें अर्पण किई हुई रकमोंमेंसे कुछ २ रकम लग चुकी है और लगती जाती है उनके द्वारा न परिपूर्ण इच्छित फलकी प्राप्ति हो सकती है न इसका किसीपर हैसियतके मुवाफिक बोझा डालना मुनासिब है. जब कुल जमा किई हुई रकम खर्च हो जावेगी और कोई सूरत आमदकी सोची न जावेगी तो जो २ काम बिचारे गये हैं वे केवल अंश मात्र शुरू होकर मुद्राके अभावमें उसही प्रथम
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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