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________________ १५२ जैन कोनफरन्स हरेल्ड. ............... जीर्ण मन्दिरोद्धार..... "जिसतरह परमात्माको 'बाणी पुस्तकोंद्वारा मालुम होतीहै वैसेंही उस परमात्माका स्वरूप उसकी प्रतिमा द्वारा मालुम होताहै और इस स्वरूपके मालूम होनेसे अपना धर्मकृत्य ठीक तोरपर सधसकताहै. इसही का. रणसे अपने बडेरों ने करोडों उप्पये खर्च करके आबू राणकपुर जैसें भव्य मन्दिर बनवाये हैं. हिंदुस्थानमें लगभग ३६००० जिन मन्दिर कहे जाते हैं उनका रक्षण करना जैन समाज का मुख्य कर्तव्य है. जहांपर मन्दिर जीर्ण हो गये हैं वहांपर उन के सुधराने का प्रबन्ध करना, जहांपर पूजावगरह का इन्तजाम ठीक नहीं है वहां पर पूजा का बन्दोबस्त करना, जहापर जैनी समुदाय के होते हुवे मंन्दिर नहीं है वहांपर नवीन मन्दिर का बन्दोबस्त करना उचित है. जीवदया. जिसतरह अपने स्वामीभाईयो की मदद के वास्ते निराश्रिताश्रम खोलकर उनकी भक्ति करना अपना कर्तव्य है उसही तरह लूले, लंगडे, बुढे, अश्यक्त ढोरोंका रक्षण करना अपने दयामई धर्म का एक जुरूरी अंग है इस लिये जगह जगह हर तरह के ढोरों की रक्षा करने के लिये अवश्य कारवाई होनी चाहीये. इस वक्त बहुत सी जगह पांजरापोल वगरह मोजूदभी हैं परन्तु । अफसोस इस बातका है कि उनमें से बहुतसी पांजरापोल एसी हैं कि जिनकी देखरेख जिनका बहीवट ठीक तोर पर नहीं होता है. जानवरोंकी सार संमाल ठीक तोरपर नहीं होती है. इस कामको कोई सज्जन निजका नही समजते हैं न इस काममें जैसी सलाह सूतकी मदद चाहीये देते हैं. पांजरापोलसे मतलब यह है कि दुःखी जानवरोंको सुख मिले उनकी आत्माको संतोष मिले. परन्तु अकसर पांजरापोलोंमें इससे विरुद्ध देखने में आया है किसीके पास घास नहीं तो किसीके पास पानी नहीं तो कोई गोबर और मूत में ही लोटता है तो किसी के जेवडे की फांसी लगी हुई है तो कोई बीमारी में फसा हुवा महान कष्ट सहन कर रहा है. इसतरह की जीव दया एक दिखलाने मात्र जीव दया है. पालीताणामें बोकडों को दूध पिलाकर उनपर उपकार किया जोताहै जब सेठ कल्याण के वहविटकी सभा अहमदाबादमें हुई उस वक्त मालुम हुवा कि हजारों रुप्पयोंका दूध बोकडोंको पिलाया जाताहै और संख्या बंद बोकडे चारों तरफसे आते हैं परन्तु जब यह प्रश्न किया गया कि अगर पांच हजार बोकडे आये तो उनमेंसे जिन्दा कितने बचे तो दिलगीरीके साथ जवाब यह मिला कि आयेसो सब मरगये. खयाल करनेकी बातहै कि पांच सात हजार रुप्पया लगाकर बोकडोंको दूध पिलावें और सब मरजावें ? इसका कारण तलाश करनेसे मालुम हुवा कि अवल तो जो दूध खरीदा जाता था ठीक नहीं आता था फिर बोकडे उपर तली पडकर पीतेथे कोई ज्यादा पीनेसे कोइ न पीनेसे कोइ चिथकर मर जाताथा. इस तरहकी हालतमें यह जीवदया कहांतक जीवदयाकी पंकतीमें आसकतीहै और इस तरहका पैसा खर्च करना कहांतक धर्मकार्यमें खर्च किया हुवा शुमार किया जा सकता है आप साहब खुद खयाल करसकतेहैं. जीवदयाका प्रचार रीतसर करनेके वास्ते अवलतो पांजरापोलोंका मकान अच्छा कुशादा वनना (चाहीये.. दूसरे उसकी देखरेख सार संमाल उम्दा होनी चाहिये; तीसरे कोई वैटरीनरी डाकटर Veterinary Doctor ) उन बीमार जानवरोंके इलाजके वास्ते मुकरर किया जावे; चोथे अच्छे
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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