________________
हैन य
શ્રી મહાવીર જયંતી ખાસ અંક.
वंदामि पादे प्रभु वर्धमान એમજ મતભેદથી અનંતકાળે-અના જન્મ પણ આત્મધર્મ ન પા –માટે પુરૂ તેને ઈરછતા નથી; પણ સ્વરૂપ શ્રેણુને ઇરછે છે.
S. R. સંપૂર્ણ આત્મસ્વરૂપ કઈ૫ણ પુરૂષને વિષે પ્રગટવું જોઈએ એ આત્માને વિષે નિશ્ચય પ્રતીતિ ભાવ આવે છે અને તે કેવા પુરૂષને વિષે પ્રગટવું જોઈએ એમ વિચાર કરતાં જિન જેવા પુરૂષને પ્રગટવું જોઈએ એમ સ્પષ્ટ ભાસે છે. કેઈને પણ આ સૃષ્ટિમંડળને વિષે આત્મસ્વરૂપ સંપૂર્ણ
टायोश्य होय श्रीमानस्वाभान विप्रथम प्राटा योग्य वा छ. S. R. પુસ્તક ૩ વીરાત સં ૨૪૫૪ વિ. સં. ૧૯૮૪ ચૈત્ર.
वीरस्तुति
निजधर्म भूल बैठे अभिमानमें रहै है
सत्पथ हमें दिखादो, इतनी दया करो अर्हन् श्री वीरस्वामिन् ! चरणौ तव विभों ! नमामि ॥
भवसिन्धु में है नैया, असू इबी जा रही है विश्वेश! विश्वरक्षक ! मोक्षस्य मार्गकदर्शक !
झट दे इसे सहारा भवपार तुम करो त्वां देव ! अर्चयामि चरणौ.
अंगुष्ठसे गिरि को तुमने हिलाया स्वामिन्. ॥१॥
भ्रम इंन्द्र का मिटाया बोधित हमें करो त्वं देव ! सुखकर्ता त्वमेव दुःख हर्ता ।
त्रिशलातनय हे भगवन् ! सद्ज्ञानदानदाता शरणं तवाहं यामि चरणौ० ।
॥२॥ चैतन्य हमको करके उपकार उर भरो स्वं नाथ | दुरीतहारी त्वं चैव सुकृतकारी।
तृण बिचारे लगकों करते हैं रातदिन.. त्वामीश ! सदा स्मरामि चरणौ०
॥३॥ दे ज्ञान हिंसकों को मद स्वार्थता हरो प्रभो ! त्वं पूर्णकृपालुः अहमस्मि त्वयि श्रद्धालुः । . हिंसक बने हैं लाखो जीवोंको हणे हैं. त्वत्कृपां याचयामि चरणौ०
॥४॥
दया धर्म है अनूपम यह कर्णगत करो विमलात्मविशुद्ध ! स्वच्छ शिवशर्म मां त्वं यच्छ ।
बहु यातनायें सहकर दया धर्म कोफैलाया
बहु यातनाय स नान्यज्जिन ! मार्गयामि चरणैा०
हम हीन हैं दयासे उर में दया भरो
॥५॥ वीरात् २४४१
ईश्वर है का धता जग ऐसा जानता है. -श्री जिनविजयजी
हिम्मत को हार बैठे, आलस्य को हरो श्री वीरप्रार्थना
सद भान छोड़ बैठे बल स्वार्थ जानते हैं सिद्धार्थ के दुलारे हमपर दया करो,
निःस्वार्थ भाव भगवन् मनमें मेरे भरो निजसेवकों के स्वामिन् त्रयताप को हरो
बिनतेरे आज स्वामिन् ! सेवक अधीर तेरा अज्ञान का अंधेरा हम सबपेछारहा है
झट स्वप्नमेंही कहदो आताहू मत डरो निजज्ञान केरविसे, सहसा इसे हरो
-पन्नालाल शर्मा