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________________ જૈન યુગ ફેબ્રુઆરી ૧૯૬૦ कॉन्फरन्स पूर्ण रूपसे न धार्मिक संस्था है न सामाजिक प्रथम आज के युग रूप संस्था का नाम सर्वव्यापी अपितु दोनों ही कार्यों का प्रतिनिधित्व करती रही है ऐसी यानी अखिल भारतीय जैन श्वे. श्री संघ होना चाहिये। स्थिति में संस्था के क्षेत्र को और भी विस्तृत करना होगा। यह हमारी संस्कृति और शास्त्रीय परिभाषा के अनुरूप है। हो सकता है संस्था ही के कुछ सदस्यो को इस ओर बढना इससे संस्था का क्षेत्र विस्तृत व दृष्टिकोण व्यापक बनेगा। रुचिकर न दिखाई दे पर समय के प्रवाह को कोई रोक दुसरे संस्था की कार्यवाही केवल सभा या अधिवेशनो तक नहीं सकेगा। और जो लोग समय के साथ नही चल ही स्थिर न रहे बल्की रचनात्मक कार्य की और शक्ति सकेगें-समय उनका इन्तजार नहीं करेगा और उनको पीछे । लगाई जावे-प्रेरणा देकर-जगह जगह-उद्योगशालायें-पाठछोडकर आगे बढ जावेगा और फिर समय के साथ न शालायें आयम्बिल-शालायें व इसी तरह की दुसरी संस्थायें चल सकनेवाला व्यक्ति और समाज अपने को समय से ५० . खूलवाई जावे व मंदिर, उपाश्रय, धर्मशालाओं की सुन्दर वर्ष पहले के युग में पायेगा और एसी परिस्थिति में न से सुन्दर व्यवस्था बनाने का प्रयत्न किया जावे । विधान वह समय के साथ चल सकेगा न समय उसके साथ चल में अध्यक्षीय चुनाव की प्रणाली जनग्राही नहीं है वास्तव सकेगा और निगशा का जीवन बिता कर न वह स्वयं में आज की ससदीय प्रणालियों के अनुरूप-संस्था के का कल्याण कर सकेगा न समाज के ही काम आ शकेगा। अध्यक्ष का निर्वाचन उपर के बजाय नीचे से किया जावे आज के युग प्रवाह व समय के तकाजे रूप यानि स्थाई.समिति का प्रत्येक सदस्य यह महसूस करे कि दहेज आदि अनेक प्रश्नों पर संस्था को अपना एक निश्चित सभापति के निर्वाचन में मेरा सीधा अधिकार है। इस दृष्टिकोण बनाना पडेगा। इसके अलावा समाज के प्रमुख लोकतंत्रीय प्रणाली से प्रांतीय शाखाओं में भी जान आवेगी अंग साधु संस्था की और भी कुछ ध्यान देना होगा यह और प्रतिवर्ष अध्यक्ष के चुनाव के कारण हरेक जगह के समाज का सौभाग्य है कि इस कॉन्फरन्स के युग में हमारे सदस्यों का कॉन्फरन्स कार्यालय से सीधा सम्पर्क भी कायम समाज में उच्च कोटी के विद्वान साधु व आचार्य हुए हो जावेगा। अब तक के बंधारण में जो स्थायी समिति के और है पर इस के बावजूद समाज उत्थान-एकता आदि सदस्यों का बटवारा किया गया हैं उसमें भी आजकी कार्यों व समाज की स्थिति के अनुरूप अपने को ढालने में राजनैतिक परिस्थितियों व सीमाबंदियो के अनुरूप वे कामयाब नही हो सके । हाल का असफल श्रमण सम्मेलन परिवर्तन आवश्यक है। यह प्रतिनिधित्व सारे इसकी जीती जागती मिसाल है । यह सब क्यों ? यह एक भारत में हमारी जनसंख्या के अनुपात से होना चाहिये प्रश्न है जो दिमाग में हर वक्त घूमता है। वैसे तो और इस दृष्टि से राजस्थान को कम से कम हिस्सा चतुर्विधसंघ में श्रमण संघ का स्थान प्रमुख है पर जब प्रतिनिधित्व मिलना चाहिये यह भी प्रयत्न करना चाहिये वातावरण ठीक न बन पा रहा हो-लाभ के बदले हानि हो। कि किसी भी प्रान्तका कोई शहर जिसमें अपनी आबादी . रही हो तब श्रावक संघ भी यदि शासन की एकता के लिये हो प्रतिनिधित्व से वंचित न रह जावे इसके लिये प्रांतीय कटिबद्ध रहे तो उतना बिगाड नही हो सकता-इसलिये शाखायें कायम की जावे। उनको मजबूत बनाया जावे । आज समय है जब कॉन्फरन्स श्रावक संघ का नेतृत्व कर ये शाखायें सारे भारत में कम से कम ७ अवश्य होनी समाज में मोटे रूप में फैले हुए विवादों में एक रूपता चाहिये । जितनी प्रान्तीय शाखाये मजबूत होगी उतनी ही लाने के लिए प्रयत्न करे और आवश्यकता होने पर संघ केंद्रीय संस्था को बल मिलेगा। के लाभ हेतु बड़ा कदम भी उठाना पडे तो उठाये-पर यह तब ही सम्भव हो सकता है जब कॉन्फरन्स को हम मजबूत स्थायी समिति के सदस्यों का जो निर्वाचन अधिवेशन बनाये-यह कैसे सम्भव हो ? इसपर भी कुछ हम विचार कर के वक्त रखा गया है वह मी हमारी दृष्टि से उचित लें तो ठीक होगा। कॉन्फरन्स का बंधारण (विधान) समय नहीं है । यदि ये निर्वाचन प्रांतीय शाखाओं द्वारा अधिवेशन के अनुकूल बनाना होगा। पुगने बने हुये बंधारण में से एक माह पूर्व कराये जावे तो सब लोग इस और योग्य परिवर्तन भी करने होंगे। कुछ सूझाव इस सम्बन्ध आकर्षित होंगे यह समाज में प्रेरणादायी एक चीज बन में हम यहां सूचित कर देना भी ठीक मानते हैं ताकि जावेगी। कॉन्फरन्स का गांव-गांव और शहर-शहर में प्रचार अधिवेशन के समय तक इनके बारे में अधिक से अधिक होगा और लोगों को कॉन्फरन्स की गति विधि से जानकारी जनमत जाना जा सके। . होगी।
SR No.536284
Book TitleJain Yug 1960
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1960
Total Pages154
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size11 MB
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