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જૈન યુગ
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નવેમ્બર ૧૯૫૦
वंचना नाम है वशीकरण के उपायका । निजके भावोंको छिपादेना, दूसरों को अनुकुल बनाने के लिए उसके स्वभावसे परिचित होकर अपने स्वभावको भी अल्प समय के लिए तदनुकूल परिवर्तित करदेना और सिद्ध साधक भावसे अग्रेसर बनना इस व्यवहारका नाम है वशीकरणका उपाय।
वंचनाका मूल दूरगामी हो गया है सहसा इसका अभाव होना संभावनासे बाहर है. इसका सर्वथा अभावतो विसाध्य है तौभी इसके बढते वेगको स्थगित कर देना साध्य और समयसंगत है। मुझे विश्वास है कि जनता जीवनको सार्थक बनानेके उद्देश से देशान्तर से आई हुई उच्छृङ्खलताके दुष्परिणाम पर दृष्टिपात करने लगेली तो वंचनाका वेग स्थगित हो जायगा। प्रत्येक भारतवासीको यह जानने के लिए जागृत होना चाहिए कि भारतका स्वर्गीय जीवन दिनों दिन उछिन्न क्यों होता जाता है। अभय और सत्वसंशुद्धि इन दोनोंका साहचर्य नित्य है इस सिद्धान्तसे हम भारतवासी दूर क्यों होते जाते हैं ? जहां वंचना रहती है वहां भय अवश्य रहता है अर्थात् भय
और वंचना का साहचर्य भी नित्य है इस सिद्धान्तको क्यों नहीं सादर विपने विचार में हम स्थान देते हैं ?
हिन्दु जनता आजमी संसारके सर्व जातीय जनतासे अधिक सुखी सुसन्तुष्ट है, उसका कारण यही है कि अन्य देशोंकी अपेक्षा यहां (भारतवर्षमें) वंचनाका वेग न्यून हैं। गरीब भारतवासी भी कुटुम्बी हैं, एक दूसरे से सात्त्विक हार्दिक साहानुभूतिकी समर्थक नीतिको पसन्द
करते हैं। अन्य देशवाले श्रीमान् और सभ्य कहाने के मिथ्या सन्मान से विभूषित होने परभी अधिकांशमें कुटुम्ची नहीं हैं, उनका ग्राम्यव्यवहार वेश्याओसे और भोजनव्यवहार होटलोसे निर्वहता है, ये विदेशी शास्त्री "पल्लवग्राहिपाण्डित्यं क्रयक्रीतं च मैथुनम् । भोग्नं च पराधीनं तिस्रः पुंसां विडम्बनाः" में ओप्रोत हो रहने परभी वंचनानीतिके समर्थन में संलग्न हैं स्वयं क्लेशसागर में पडे हैं दूसरों को पड़नेके लिए बाधित करते जाते हैं। भारतवासी जनसमुदाय विशेष कर जैन समुदायको सावधान कर देना आवश्यक है कि श्री मल्लीनाथजीके इतिहास पर विशेष रूपसे ध्यान दीजिए । उक्त तीर्थङ्कर प्रभुकी वंचनासे विशेष भयावह न होने परभी उनको स्त्री शरीर प्राप्त करने लिए बाधित कर दिया। स्त्री शरीर तीर्थङ्कर हो सकता है कि नहीं इस विचारवैषम्यको उपस्थित कर वह छोटी वंचना भी जैन जनतामें सिद्धान्त भेद उपस्थित करादी। अन्य भारतवासी समुदायों में भी मतभेद अवगत होते हैं उनमें भी कीसी न कीसी महा पुरुषकी वंचना ही हेतु है। वर्तमानकाल में भी जो जनता भावदुष्ट बन रही है इस अनर्थ में भी किसी न किसी अग्रगामी पुरुषकी या पुरुषोंकी वंचनाही कारण है। शुद्ध हृदय से दर्शाए गए विचारोसे बना सिद्धन्तभेद केवल विद्वानों में रहता है वह पामरोंको नहीं विभक्त करता। इनको अलग करनेवाली केवल वंचना है अतः सप्रमाण कहा जा सकता है कि वंचना की प्रगति यह मानव जीवनकी अधोगति है।
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