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________________ જૈન યુગ. ०१६-9-1८४० ही मिलती है. जिससे वहां जानेबाले सज्जन अपने अवशिष्ट नालन्दाजगृह से आठ मील दूर उत्तर की ओर है। समय का कुछ उपयोग कुछ मानसिक मनोरंजन कर सकें। भारतवर्ष के स्वर्णयुग-गुप्तकाल में इसकी स्थापना हुई यह तो खैरियत थी, मेरे पास ६-७ पत्र-पत्रिकाएं आ थी। यही वह हमारा विश्वविद्यालय था, जहां पढने भारत जाती थी, अन्यथा समय काटना असम्भव हो जाता। के हैं। नहीं, चीन, जापान, तुर्किस्तान, सिंहल, सुमात्रा आदि श्रौनाहरजी से परिचय होने के बाद तो इनको और भी देशों के विद्वान्-छात्र नहीं आया करते थे, और जहां केवल कभी नहीं रही। उनके वैयकित पुस्तकालय से मस्तिष्क प्रोफेसरों की संख्या १४०० थी। नालन्दा के इतिहास में जितना भोजन प्राप्त करता. उससे कहीं अधिक उनकी भारतवर्ष के लगभग सात सौ वर्षों का इतिहास सोया हुआ बातों से मिला करता! हैं, और इसके खण्डहरों में हमारी बह प्राचीन विभूति, जब तक मैं वहां रहा, १०-१५ दिन ही ऐसे बीते सभ्यता र संस्कृति धूलिधूसरित पड़ी है, जिसके अणुमात्र होंगे, जिस दिन मैं उनसे नहीं मिला और इसका कारण से भी हम उन स्वार्थ पर निन्दों से अपनी महत्ता बलात और कुछ नहीं, उनका स्वयं मेरे डेरे पर आ जाना ही स्वीकार करा शकते है, जो हमारी प्राचीन समृद्धि, सभ्यता होता था। उनकी सजनता, उनकी विद्वत्ता का जितना और संस्कृति के साथ ही हमारे विज्ञान पर भी मूर्खतापूर्ण अधिक प्रभाव मुझ पर पडा, उतना हो उनकी कर्मण्यता का तान कसते है। खुदाई में जैसे जैसे विशाल सुन्दर और भी पड़ा। वृद्ध होने पर भा मैंने उन्हें राजगृह में ७-८ घंटे कल के बन-से हजारों छात्रावास, अध्यापन के कमरे, नित्य और कभी-कभी तो १५-१६ घंटे मानसिक श्रम पुस्तकालय, भोजनागार आदि निकले हैं, उन्हें देख कोई भी करते देखा और तारीफ यह कि वे कलकत्ते से राजगृह सहृदय अपने गत वैभव की याद में दो आंसू गिराये विना जाडे में स्वास्थ्य सुधारने आते थे। उन दिनों श्रीमान् नहीं रह सकता। हम मूर्ख असभ्य और निर्धन समझे नानेवाले काले गुलाम, अपने महाप्रभुओं के शुभागमन के नाहरजी पुरातत्त्व-सम्बन्धी अपनी चौथी पुस्तक लिख रहे पूर्व क्या थे-इसे देखना हो तो कोई नालन्दा में देखे । थे. जो मथुरा पर लिखो जा रही था। पुरातत्त्व विषयक नालन्दा के गौरवपूर्ण इतिहास और उसके दर्शनीयतम उनकी तीन मोटी मोटी पुस्तकें पहले ही निकल चुकी थी। स्थानों के संक्षिप्त वर्णन के लिए भी इस पत्र के २०-२५ मुझे प्रसन्नता है, उस पुस्तक के लेखन में मुझे भी अपना पना पृष्ट चाहिए, अत: उसे यहाँ छाडता हूं। कुछ समय लगा उनकी सेवा करने का सुअवसर मिला था। सचमुख नाहरजी की कृपा के कारण ही मैं नालन्दा . एक दिन प्रातःकाल में बैठा कुछ लिख रहा था कि की प्रत्येक वस्तु. और उसका नवनिर्मित संग्रहालय अध्ययश्रीमान् नाहरजी आ पहुंचे। आते ही आपने पूछा-"आप नात्मक दृष्टि से देख सका। हम लोग रात्रि में राजगृह नालन्दा देख चुके ?" लौट आये। (अपूर्ण) "अभी कहां! सोच रहा हूं, परसा जाउंगा।" ('माधुरी' से उधृत) "परसें ठीक न होगा, मुझे अवकाश नहीं है। कल - ..... ही चलिए, मैं गाइड बन कर साथ चलूगा। मेरे चलने से मनायार्य श्री मामानम शतास्मिार ८२८ माथी निवन. आप कुछ अच्छी तरह देख सकेंगे और मुझे भी आपकी तथा जैनधर्म' भने जैन साहित्य' भय। सेवा का कुछ मौका मिल जायगा।" તે એ અંગેની પ્રાચીન “શોધખોળ તથા પુરાતત્વ” ને લગતી श्री नाहरजी का यह मेरे साथ अत्याचार ( अति+तिमा तयार ना तेभा प्रट यानी भुण्य प्रदेश भाजाका . टेखि त ममे विकावट तान-नेतर विहानी सन पनि पातानी पासे * તેવા પ્રકારની જે કંઈ કૃતિઓ હોય અગર એને લગતી જે * में प्रति ऐसे शब्द और वह भी बारम्बार आपको शाभा यानाडा नीनी सरनामे भक्षी भापका नत्र नहीं देते। मैं आपके समक्ष बालक हूं-मुझे या लजित न विन . किया करें ।” સરનામું–મોહનલાલ દીપચંદ ચાકસી. निररी भत्री. वे 'वाह' कहकर रह गये। दूसरे दिन हम लोग Codini21, यहारानी गुन। भाणी, नालन्दा चल पडे। योथे भाणे, मन... આ પત્ર શ્રી. મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને શ્રી મહાવીર પ્રી. વર્કસ, સલવર મેનશન ધનજી અટ, મુંબઈ ખાતેથી છાપ્યું, અને મી. માણેકલાલ ડી, મેદીએ શ્રી જૈન “વતાંબર કોન્ફરન્સ, ગેડીની નવી બીલ્ડીંગ, પાયધુની મુંબઈ , માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.536280
Book TitleJain Yug 1940
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dipchand Chokshi
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1940
Total Pages236
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size24 MB
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