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१-१-१८४०
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श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर
आचार्य श्रीराधारमण शर्मा, शास्त्री, काव्यतीर्थ.
जाके दिन थे और १९२३ का साथ की सम्मति से मैं अपने दुर्लभ स्वास्थ्य की मरम्मत के लिए राजगृह की पार्वीय भूमि में सपरिवार रहकर गन्यक-मिश्रित उष्णजल के सोतों का आनन्द ले रहा था । राजगृह बिहार का प्रकृतिनिमित सेनिटोरियम है विश्व नालन्दा के पाद में बसा हुआ छोटी-छोटी पर्वतमालाओं, पर्वतो का हृदय फाडकर निकलनेवाले ठंडे और गरम जल के मनोरम झरनों, और उपवन - सरीखे वनों से नयनाभिराम ! राजगृह का महत्व इन्हीं में है । वह कोई नगर नहीं है; महज छोटा-सा गाँव फिर भी वहाँ जाने के अवसर पर सैकड़ों स्वास्थ्यचिन्तकों और हजारों जैनों की भीड़ होती है। वह जैनों और बौद्धों का एक महान् तीर्थमी है।
मैं वहीं पंचायती अखाडे में सपरिवार ठहरा हुआ था। अखाडे के श्रीयुत महन्तजी ने अपना दोमंजिला नया मकान मुझे पूरा का पूरा दे रखा था, नहीं तो मुझे भी अन्य यात्रियों की तरह या तो धर्मशास्त्र को किसी छोटी कोठरी में अपनी दुनिया बसानी पडतो, या फिर किसी मिट्टी के झोपडे में रहने का सुख टूटना पडता ।
नाहर (संस्मरण)
उसके कई दिन बाद एक दिन, मैं राजगृह के छोटे-से अस्पताल में बैठा अस्पताल के डाक्टर मि० पी० गुप्ता से गये उड़ा रहा था। डाक्टर बंगाली थे, पर हिन्दी के बड़े हिमायती ! सहदय भी आला दर्जे के थे मेरी बदकिस्मती या खुशकिस्मती से जब उन्हें पता मिला में भी साहित्यिक क्षेत्र के पांचवें सवारों में हूं तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए। फिर तो उनसे साथ छुडाना कठिन हो गया। उनके लिए मेरे
पास एक और आकर्षण था और वह था मेरे पास आनेवाली पत्र-पत्रिकाओं का ढेर ! उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिलती नहीं और भा जमते पर I 1
गयों के बीच डाक्टर ने अकस्मात् कहा- "सुनते हैं, कुछ नाहरजी आ गये। "
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'कौन नाहरी
दया किया।
"ओह ! आप नाहरजी को नही जानते । कलकत्ते के पूर्णचन्द्रजी नाहर ! " जानता हूं, वे
पुरातत्त्व के विद्वान् हैं । "
सहदय और सुशील हैं। मेरा पुरातत्त्व के विद्वान् तो हैं ही, दावा है - जो भी एक बार उनसे मिल लेगा, वह उनके सोजन्य का आजन्म कायल रहेगा। वह मनुष्य नहीं, देवता हैं। यहां उनका अपना बंगला है; वे जाडे भर प्रायः यहीं रहते हैं।"
उससे कहीं अधिक सौम्य, “ बस ? अरे, वह
झूठ क्यों बोई मुझे उस समय डाक्टर की बातें अविश्वसनीय नहीं तो अत्युक्रिपूर्ण जरूर मालूम हुई; फिर भी मैंने कहा - " तो कल चलकर मिला जाय । "
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राजगृहपास के आरम्भिक दिनों में ही धर्मशालाओं के बीच एक सुन्दर-सा बँगला देख जब उसके भी धर्मशाला हाने की कल्पना कर मैं निश्चिन्त हो गया था, तो एक दिन किसी पंडे ने मुझे बताया- यह नाहरजी का बँगला है नाहरजी बडे अच्छे आदमी हैं, वे दो-चार दिन में ही यहां आनेवाले हैं, उनके आ जाने से राजगृहवासी सनाथ हो जाते है आदि-आदि । मैंने सुना, सोचा होंगे कोई नाहरजी, मुझे क्या मतलब ! और इन बातों को भूल गया। मैं स्वीकार करता हूं उन दिनों पुरातत्व के इस अगाध विद्वान्, सौजन्य के इस मूर्तरूप, आतिथ्य के इस व्यसनी और सहृदयता के इस स्तम्म से मेरा धुंचला-सा परिचय था
जरूर " - डाक्टर ने कहा, और दूसरे दिन प्रातः ९ बजे हम लोग नाहरजी के बंगले पर पहुंचे । बंगला बडी ही मुरुचि से बना हुआ है। आगे काफी मैदान है। फूल लगे हुए हैं। बंगले के बरामदे और मैदान में यथास्थल कुछ शिलालेख और मूर्तिखंड रखे हुए हैं, जो नवागन्तुक को फौरन् बता देते हैं, यह किसी पुरातत्व - विशारद का वासस्थान है। हम लोग कमरे में घुसे । कमरे में एक और पुस्तकों से भरी आलमारियां और दूसरी और एक चौकी पर प्राचीन शिलालेख और ताम्रपत्र रक्खे हुए थे। पुरानी इमारतों, भग्नावशेषों, जंगल और पहाडें के चित्र कमरे की शोभा बढा रहे थे। कुछ चित्र नालन्दा सम्बन्धी भी थे। कमरे के अन्दर एक व्यक्ति बैठा कुछ लिख रहा था - गेहुंआ रंग, ५० के उपर की अवस्था होने पर भी तेजस्वितापूर्ण मुखमंडल नाटा कद, और आकर्षण मरी वही वही आंखे ! यही थे, अन्तरराष्ट्रीय स्वातिल पुरातत्व के महान् भारतीय विद्वान् अंपूर्णचन्द्रजी नाहार एम्. ए, बी. एल्. एम्. आर. ए. एस्. आदि । हम लोगों के पैर की चाप सुन उन्होंने अपनी चश्मामंडित आंखें उपर
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