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कि वह साधुओंकी दीक्षा शिक्षा और चारित्र के ऊपरभी सत्ता भोगते हैं। अनेक जगह तो साधुओंके चारित्रके उपर श्रावक लोग खूब अंकुश रख सकते हैं । यह बात इन घटनाओंसे मालूम होती है। (पीछे कई एक घटनाऐं बताई हैं)। ___फिर जैन संघकी रचनांके अध्यन और इतिहाससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि श्रावकोंके लिये साधु संघ देवके समान पूजनीय हैं । दूसरे शब्दोंमें साघुओंका श्रावकोंके उपर प्रभाव है और श्रावकोंका साधुओंके उपर अधिकार है । यही कारण है कि यह दोनों संघ दूसरे को सहायता देते हुए साधन करते हुए चले जाते हैं । यह मानी हुई बात है कि साधुओंमें यदि एकता हो जाय तो श्रावकोंमें एकता होते देर न लगेगी । और श्रावक जाग्रत हो जावें तो साधु संघकी जो शक्ति अनेकताके प्रचारमें व्यय होती है वह एकताके प्रचारमें व्यय होने लगेगी। मुझे विश्वास है की एकन एकदिन यह कार्य अवश्य होगा और चतुर्विध संघ रचनाके महत्वको उसके सुफल द्वारा हम फिर पहिचानेंगे ।
साधु हमारे गुरु हैं उनकी पदवी जैन धर्म में उच्च मानी है । देव पूजा के पश्चात् गुरु उपासना का ही नम्बर है और वैसेभी देव, गुरु, धर्म शास्त्र के श्रद्धान और सम्मान को ही आत्म कल्याण का सुगम मार्ग बतलाया है। शास्त्र एक प्रकार से आत्मा को परमात्मपद की झलक दिखाने के लिये चित्रपट के समान है किन्तु उसका रहस्य समझने और हृदय में अंकित करादेनेवाले तो गुरुही होते हैं । जब ऐसे शास्त्र और गुरु प्राप्त हो गये तब आत्मा को परमात्मपद कौनसी देर लगती है, अर्थात् यही संसारी आत्मा गुरु कृपासे स्वयं ही परमात्मा हो जाती है। ऐसे गुरु, आचार्य, उपाध्याय, लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार है।
इस गुरुभक्ति का परम सौभाग्य अहमदाबादके श्री संघने अभी सांप्रत समय में प्राप्त किया है। मुनि संघका बडा सम्मेलन हो चुका है जिसमें करीब चारसौ साधु, और सातसौ साध्वियां राजनगरमें उपस्थित हुए थे । मुनि सम्मेलन का प्रारंभ गत फाल्गुण कृष्ण ३ से हो कर समाज का अनिच्छनीय वातावरण दूरकानेके प्रगट उद्देश से हो चुका है। उसी दिन से कुछ महत्व के प्रश्न नियतकर उस का हल करनेके लिये कई दिवसों तक चर्चा, शास्त्र चर्चा, वादमिश्र चर्चा चलती रही थी। परिणाम में अहमदाबादके मुनि सम्मेलन की पूर्ण भहूती ६ एप्रिल चैत्र वदि ७ के दिन हुई। उन दिनों वहां भाये और एकत्रित हुए सब साधुओंमें नव साधुओंकी कमेटी चुनी गई। उस कमेटीने शास्त्र दृष्टिको आगे रखकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका विचार करते हुए जो प्रस्ताव पास किये वह समस्त चतुर्विध संघ समक्ष प्रगट किये जा चुके हैं। उनमें पहिला दीक्षा का प्रश्न था । उसकी खूब छानबीन करनेके बाद जो नियम बनाये गये हैं उन का सार
८ से १६ वर्षकी उमर वालेको माता पिताकी या अभिमावककी "खित सम्मतिके विना दीक्षा नहीं दी जा सकती। जिस प्राममें दीक्षा होनेवाली हो वहांके दो मुख्य दीक्षा लेनेवालेके वहां जाकर लेखित सम्मति की जांच करें।
___ दीक्षा देनेवाला दीक्षा लेनेवालेकी योग्यताको परीक्षा करने के बाद दूसरे सिंघाड़ेक दो आचार्योंकी सम्मति प्राप्त करके अच्छी जगह अच्छे महूर्तमें प्रगट रूपमें दीक्षा दें। नव दीक्षितको स्थविरके पास अथवा उसंक दीक्षित पिताके पास रखा चाहिये ।
१८ वर्षसे अधिक उमरवालेको बहुत वृद्ध न हो तबतक मातापिताकी सम्मत्ति मिलने के बाद अगर न मिले तो बिना सम्मत्तिके अपनी स्त्री, बहीन, पुत्रादिके निर्वाह योग्य प्रबन्ध करके दीक्षा लेनेके भढारह दोष छोड़कर शुभ मुहूर्तमें दिक्षा ग्रहण कर सकता है । और दीक्षा देनेवाला मुनि अपनेसे बड़े मुनि अथवा गुरुको पूछकर दीक्षा देवे ।