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________________ ताउनु मना :- Regd. No. B 1996. HINDSANGHA' ॥ नमो तित्यस्स ॥ Moreveawne c5.. तान शिान न युग . Please Bas The Jurint Puna. परमे1826 જૈન શ્વેતાંબર કોંફરન્સનું મુખપત્ર. चल CATER વાર્ષિક લવાજમ રૂપીઆ બે. તંત્રી:-હરિલાલ એન. માંકડ બી. એ [महहनाश भत्री, न श्वेतin२ अन्दर-स.] છુટક નકલ होर मानो. गुनु । ता. १ १८३२. ममी. 'नयु २० क्षा या दीक्षा. एक की आयु है १३ वर्ष की, जिनका नाम है श्री महोदय (लेखक:-श्री जवाहिरलाल लोढा; अधिपति, "श्वेतांबर जैन") सागरजी। दूसरे हैं श्री अभयसागरजी महाराज, इनकी छोटे छोटे बालक बालिकाओ को फुसलाकर साधु अवस्था तो केवल ६ वर्ष की ही है। दोनों के दर्शन कर साध्वी बनानेका रोग दिन व दिन बढता जाता है। अभी मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कौतूहल वश मैंने दो दो मास भी नहीं हुए जब मैं कार्यवश बडोदा गया था चार वात उन बाल मुनियों से पूछी । वह बेचारे उत्तर क्या तो वहां जैन मन्दिरों के दर्शन करने के उपरांत यह तलाश देते, उन्हें अपनी चादर और ओघा तक तो सम्हालना आता का कोई मनिराज यासाची जी भी विद्य- ही नहीं। हम नहीं कह सकते कि छ: छः वर्ष के दुध मुंहे मान हैं। तो एक स्वधर्मी भाई ने बतलाया कि 'हाँ' छाणी बच्चों को पंच महाव्रत का भारदे देने में इनके गुरुओं ने से विहार कर श्री धर्मसागरजी महाराज आदि ठाणा ६ क्या लाभ सोचा है। वैसाख मुदी १३ के दिन बड़ौदा पधारे हैं। साध्वी जी श्री महाराज श्री से मैने पूछा कि यदि इन बच्चों को हीरश्री जी महाराजादि ठाणा ६ भी विराजती हैं । हम उनके पहिले शिक्षा देकर दीक्षा दी जाती, पहिले विद्वान बनाकर दर्शनों की इच्छासे दोनों उपाश्रयोंमें गये। पंच महाव्रत का भार सौंपा जाता तो क्या अच्छा न होता ! श्री सिद्धिविजयपूरिजी के सिंघाड़े की साध्वी श्री महाराज ने फरमाया कि दीक्षा देकर शिक्षा देने में अधिक हीरश्री जी महाराज के पास सुरेन्द्रश्री नाम की एक साध्वी सुविधा रहती है । बडा होकर साधु बनना कठिन हो जाता जिसकी आयु १०-११ वर्ष की है, को देखा। पूछने पर है। इसी प्रकार महाराज साहब ने कई एक बातें कहीं, मालूम हुआ कि इनके माता-पिता मौजूद हैं। वैराग्य भावना किन्तु उनके उत्तर से अपने को संतोष नहीं हुआ क्यों कि के वशीभूत होकर खुशीके साथ इसने दीक्षा अंगीकार की हमतो रात दिन यह पढ़ते सुनते चले आरहे हैं किहै। मैंने पूछा कि आपने विद्याध्ययन कहां तक किया है। “पहिले ज्ञान ने पीछे किरिया, नहीं कोई ज्ञान समान रे।" तो एक दुसरी साध्वी जी महाराज बोल उटी कि अभी तो विचार किया जायतो बातभी वास्तवमें यही ठीक है यह बालिका है। दीक्षा लिए भी अधिक समय नहीं हुआ कि पहिले जानना और फिर करना। जिस बातको जो है। कुछ पढ़ना प्रारम्भ कर दिया है। मुझे आश्चर्य हुआ जानता ही नहीं उनके करने में उससे सैकडों भूले होना कि जब कुछ शिक्षा भी प्राप्त नहीं की, धर्म का ज्ञान भी स्वाभाविक हैं । जिसने सेर दो सेर भी बोझा न उठाया हो नहीं हुआ तो वैराग्य भावना ने ऐसा जोर कैसे मारा कि उसके ऊपर मनों का बोझा लाद देने का फल यही होगा इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने दीक्षा अंगीकार करली । खैर! कि वह घबरा जायगा और उसका बस चला तो छोड़ कर मैं वहाँ से उट कर श्री धर्मसागरजी महाराजादि ठाणा ६ भाग जायगा जैसा कि आज कल अकसर हो रहा है। की सेवा में पहुँचा तो वही दो बाल मुनियों के दर्शन हुए। (अनुसंधान पृ. ९७ पर देखें.)
SR No.536272
Book TitleJain Yug 1932
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1932
Total Pages184
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size13 MB
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