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________________ 184 - युग - ता. 15-12-3 एक जैन मुनिका श्री मंघको निवेदन / बढते हुए झगडोंको रोकनेकी जरुरत / "जैन शासनके मुनियों को जो जैन धर्मके सच्चे उपदेशक हैं उन्हें सम्हज जाना चाहिए." प्रायः अन्तिम पञ्चीस सालसे जैन धर्ममें जो प्रवृत्तियां दुसरी औरसे दिगम्बर लोक तीर्थोंके विषदामें मनचाहा हो रही है इससे जैन समाज अच्छी तरहसे वाकिफ है। उत्पात करते रहते हैं और स्थानकवासी भी आगमादि यह तो स्पष्ट ही है कि दिनप्रतिदिन ईर्ष्या, द्वेष और मत्सर पदार्थोंको न मानते हुए अपनी उल्टि ही गंगा बहाते हैं / वृद्धिको पा रहा हैं और जिस धर्मको प्रभावना करनेके लिये तो इस समयमें आपसमें न झगडते हुए. अगर एक्य कर हम कटिबद्ध हुए हैं उसी धर्मकी अवनति हमारे ही हाथोंसे लिया जाय तो हि कल्याण है वरना अवनति ही हैं / हो रही है, यह क्या सख्त अफसोसकी बात नहीं है ? और यदि सबसे प्रथम साधुलोगी अपना एक्य कर मैं श्री संघको-उसमें भी जैनधर्मके आचार्यवोको, लें तो भी अच्छा है / पीछे श्रावकवर्ग अपने आप रास्ते पर उपाध्याय महाराजोंको, पन्यासपदधारकोंको तथा गणिपद- आ जावेगा / दुनियामें कहावत है कि "रावणका गज भूषित मुनियोंकों तथा मुनिमाहाराज साधुओंको भी विनति बनिया न होनेसे गया " मगर यह कहावत वर्तमानमें विपकरूंगा कि आप ही जैनधर्मके सच्चे उद्धारक हों और आप रीतार्थको चरितार्थ कर रही है / बनियोंका राज्य शासन लोगोंको ही इसमें हिस्सा लेना न चाहिए / वर्तमानके दोक्षा उनके ही हाथोंसे नष्ट हो रहा है / सजनों, हा, इति वेदे. प्रकरणसे समाजमे कितना बखेडा हो रहा है और उतनेमें पंचमकाल तो अवश्य है मगर उसका सबसे ज्यादा प्रभाव ही एक विषयका निपटारा न करते हुए. प्रतिदिन नये हमारे पर ही गिरा नजर आता है। वखेडे समाजमें पैदा कर दिये जाते है जिससे भप्राणियोंकी अन्तमें जैनशासनके मुनिबाँको जो कि जैनधर्मक श्रद्धाको बड़ी हानि पहुंचती है। सच्चे उपदेशक सुधार अथवा समय धर्मवालेको करनेवाले में स्पष्टतासे कहूंगा कि ऐसे झगडोंसे जैनधर्मके हैं उनको ही सम्हल जाना चाहिए जिससे शासनमेंसे क्लेश, तत्वज्ञानको, जैनधर्मधारक जीवोंको कुछ भी लाभ नहीं होता विखवाद नष्ट हो जाय तथा परधर्ममें जाते हुए जीव स्वकिन्तु जैनधर्मकी जगत्में हांसी और अवहेलनी होती है धर्ममें रक्त रहें और जैनधर्मके उदार सिद्धान्तोकी तथा उदार तथा उसकी प्रमाणिकता पर कुठाराघात होता है। आचारोंकी तथा छाप जगत पर अमिट हो जाय / यही / आम् मैं तो अपने जैनधर्मके शुभचिन्तकोंको अर्ज करता शान्तिः शान्तिः शान्तिः हूं जैसे हो सके वैसे जल्दि ही इन झगडोंका निपटारा लि. श्री संघसेवक. कर दें अगर भावीकालमें भी ऐसी ही स्थिति रही तो जैन हेतमुनि,.....आगरा. धर्मियों को और उसमें भी साधु संस्थाको बहुत सहन करना n ee पडेगा / जिनके पास श्री महावीर प्रभुके उपदेश रत्नोंका "नमा साना सानु खजाना भरा है, जिनके पास अहिंसाका अप्रतीम शस्त्र है, श्रीस महातिय शयने। 5. जिनके पास अद्वितीय तत्वज्ञानका श्रोत बह रहा है वैसे मसनवासना 45 852 नवी 50अगर कायरोंकी तरह आपसआपसमें लडने बैठें यह तो धननाएट १२+१०नी सा नायथा 45 પેઈન્ટીંગ કરેલ તૈયાર છે. તથા મન પસંદગી सम्त लजाकी बात है / उनको तो अब समयकी प्रतीक्षा પ્રમાણે બનાવી આપવામાં આવશે. અમારા હાથથી न करते हुए जल्दि ही समाधान कर लेना चाहिए / समा- आधा परी घासणे या धानमें ही संपमें ही सबकी मुख और शक्ति है ! છે છે. નમુન જેવાને માટે નીચેના ઠેકાણે મળે मुझे फिर अफसोस और रंजके साथ कहना पड़ता। उता अथवा समा:है कि वर्तमानमें जैनधर्मके कितनेक अग्ववारों में ऐसे लेख पे-८२ ना२५ अभृत. आते है जो कि धर्मको हानि पहुंचाने वाले हैं। उनको वे 30माडी, श्रीगणेश भुवन, जीउ भाणे, .. साटासपासे, भुभा लख कतई न छापने चाहिएं। ++++ +++ +++ ++ Printed by Mansikhlal Hiralal at Jain Bhasktroday P. Press, Dhunji Street, Bombay 3. und published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pydhoni, Bonubay
SR No.536272
Book TitleJain Yug 1932
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1932
Total Pages184
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size13 MB
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