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૧પ૦ - जैन युग -
ता.१-१०-३२ ॐ व्यवहार में अनेकान्तवाद. आजादी से प्रचार करने का था। विचारक अपनी २ दृष्टि
हमारे समक्ष ऐसा युग विद्यमान है कि जिस समय (मान्यताए.) आग्रहपूर्वक जनता के समक्ष रखते थे। यह प्रत्येक धर्म और वर्ण जिस वस्तुको सवोत्कृष्ट और प्रशस्त मान्यताए विविध प्रकारसे अपने २ ध्यानसे पेशकी जाती थी। मानता हो उसे समग्र राष्ट्र के चरणों में समर्पित करना यह स्वभाविक है कि इस प्रकारकी विविध मान्यताए नितान्त आवश्यक है। इससे आगे बढनेका यदि साहस एक दूसरे के सम्पर्क में आते संघर्षण और विरोध उत्पन्न करूं तो यह भी कहूंगा कि समग्र मानवजाति के चरणों में करे । विरोध-विचार प्रदेश में हो इससे उस में राग द्वेष की धरना चाहिए। अब वह जमाना पूर्ण हो चुका है कि जब प्रबलता को अल्प स्थान होगा यह न मान लिया जाय। इस मनुष्य अपनी विशेषताओंको अपने संप्रदाय वा अपने वर्ण प्रकार से देश में जब विविध प्रकारकी विचार समृद्धि बढती ही में दबा रखे, और उस वर्ण या संप्रदाय का नाम जो जाती है तब उसमें से गग द्वेष को अलग रख प्रत्येक विचार धारण नहीं करते हों उन्हें उन विशेषताओंके अनधिकारी (मान्यता) को स्वदृष्टि से निरीक्षण करनेकी आवश्यक्ता उत्पन्न मान ले । ब्राह्मण कुल में जन्म लेनेवाले यह दावा नहीं कर होती है । मेरा मंतव्य है कि यह खामी पूरी करने के लिए सकते कि विद्या प्राप्त करनेका अथवा प्रदान करनेका अधि- अनेकान्त का बीज रोपा गया होगा, पर अनेकान्त का यह कार उस के सिवाय अन्य किसी को नहीं है। इसी प्रकार अथ नहीं है कि दृष्टि सत्य ही है अथवा दृष्टि सत्य हो तो यह भी कोई कह नहीं सकता कि अंग महेनतसे सेवा करना भी उसके आधारसे चलते विचार तत्संग हो । उभयका निश्चय केवल क्षुद्रों का ही कार्य है। अहिंसा की बूम पूकारने का परीक्षा के बाद ही हो सकता है । एकान्तवादका अथ कभा हक केवल जैनोको, या मध्यम प्रतिपद से संचरने का अधि- यह होता ही नहीं कि प्रत्येक मनुष्य जो कुछ भी कहता है कार मात्र बौद्धों को ही है यह स्वीकार नहीं हो सकता। वह सत्य है अथवा उस मनुष्यको अपनी इच्छानुसार करने के आज कल तो प्रत्येक सम्प्रदायकी कृतार्थता अपने में जो लिए यह एक बहाना है। यह मान लेना सर्वथा अनुचित भी उत्तम हो उसे समग्र मानव जाति के शरण रखनेमे है। होगा । अनेकान्तवाद उन उन दृष्टि और तत्वोंका तात्विक स्वसम्प्रदायके नामको अन्य धारण करे इसका आग्रह न परीक्षाके पश्चात ही उस दृष्टिकी यथार्थता और आचारणको रख स्वधर्म या वर्णकी विशेषताओं को अन्य ग्रहण करे यह योग्यता स्वीकार करता है। परन्तु अनेकान्त दृष्टि में यह इच्छने में कृतार्थता है।
मान्यता रही हुई है कि वस्तु अनेक धर्मात्मक होनेसे उसकी उपरोक्त दृष्टि से विचार करते जैन धर्म समस्त राष्ट्रकी पूरी समझ अथ
पूरी समझ अथवा उत्तरोत्तर अधिक समझ उसे अनेक दृष्टिजनताके समक्ष अथवा मानव जातिके समक्ष क्या क्या रख बिन्दुआ स तपासन स सकता है ! जैन धर्म में ऐसे अनेक आचार विचार और इस प्रकारसे 'अनेकान्त को देखा जाय तो सर्व तत्त्वविधि विधान हैं जो खुद जैनोंको श्रेष्ट लगें। तो भी समग्र जिज्ञासुओको विचारने योग्य विषय है यह मालूम हुए मानव जाति के समक्ष उनको चालू रूप में पेश करने में बिना नहीं रहता। मैं केवल फिलोसोफी की दृष्टि से ही अनेक अंतराय हो परन्तु जीवन में अहिंसा-दृष्टिकी प्रधानता, आपके समक्ष अनेकान्तकी चर्चा करना नहीं चाहता। जिस या मन और शरीरको वश रखनेके हेतु इन्द्रिय संयम पर प्रकार प्राचीन कालके आचानि उनके समयमें विद्यमान भार अथवा विचारके एकान्तिक दुराग्रहांको दूर करनेके लिए दर्शनोंका अभ्यास और परीक्षा कर स्याद्वादको "सकल दर्शन अनेकान्त दृष्टिकी व्यवहारू उपयोगिता जैसे सिद्धान्त तो समुहात्मक" (श्रीमद् हेमचंद्राचार्य) बतलाया उसी प्रकार से मानव जाति के समक्ष अवश्य रखे जा सकते हैं। आजभी विचारक वर्तमान फिलसफीओका और वैज्ञानिक
जैनाचार्य कई वख्त जैन दर्शन को एकान्त दर्शन का द्रष्टिओंका अभ्यास और परिक्षाके बाद स्याद्वादको नया अवतार नाम देते है। इस पर से एकान्त के सिद्धान्तका महत्व प्रदान कर सकता है । इस प्रकारके प्रयत्नसे अनेक नवीन उनकी दृष्टि से कितना है यह स्पष्ट हो रहता है। भगवान तत्व निकल आनेकी संभावना है। अपने देशमें खास महावीर ने जैन धर्मका पुनरोद्धार किया तब मे अकान्त के करके गुजरातमें और उसमें भी जैनामें विद्या का अनादर इतिहासका प्रारम्भ माना जा सकता है। उतर हिंदके लिए है और इसोसे विद्याका दुर्भिक्ष नजर आता है। इस परिवह युग विचार स्वातत्र्यको किसी प्रकारके प्रतिबन्ध बिना
(अनुसंधान पृष्ठ न. १४४ के उपर) Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay s und published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pychoni, Bombay