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'त. १५-७-३२
दीक्षा का भूत:
मुर्ख भी, शायद, उत्तर दे सकेंगे कि-गाडी के टुकडे, कोचबाल दीक्षा के प्रश्न ने जैन समाज में इतना विकृत .
वान को बक्र तारीफ और गाड़ी में बैठने वालों की रूप धारण कर लिया है कि यदि इस प्रश्न पर समाज जल्दी
अंगहानि। यह रुपक बाल-दीक्षा-विज्ञान को समझाने के
लिये काफी है। ही पूर्ण रूप से विचार करके कुछ निश्चय न कर लेगा तो '
इस प्रकार का ढोंग रचना कि बाल्यावस्था में दीक्षा वह कुछ समय बाद अपने असंख्य टुकड़ों में दृष्टिगत होगा। और
देने से बच्चों में अच्छे संस्कार जम जाते है, सर्वथा निर्मूल अहा! यह दीक्षा जिसका नाम सुनने से ही भव्य प्राणियों का हृदय आनन्द सरिता में निमग्न हो जाता था, उफ. प्रकरण, शायद, गर्भ में रहे हुए बच्चों तक भी पहुंच जाय
है। यदि यही युक्ति ठीक मानी जाय तो यह दीक्षा का उसी दीक्षा को आज समाज में द्वेष-वैमनस्य, फूट-कलह, क्रोध और गाली-गलौचका विषय बना लिया गया है। वह
और यदि ऐसा ही हुआ तो हमारे बाल-दीक्षा के समर्थक
साधु पूरे गृहस्थी ही बन जायेंगे चाहे उनका वेष कैसा भी साधारण मनुष्योंसे नहीं; समाज की बागडोर के स्वामी बड़े बडे उपाधि धारियोंके द्वारा !!
भी क्यों न रहे । और जन-समाज भी यह क्यों न चाहने दीक्षा यानी संसारकी वासनाओंसे किनारा दीक्षा यानी
लगेगा कि जिस कार्य में उन्हें अपनी सन्तान को पारंगत संसार की जलती हुई भट्टी में से निकल कर शान्ति-सरिता
करना है उसी में जोत दे। उदाहरण स्वरुप एक वणिक में प्रवेश करना, दीक्षा यानी जीवनकी कसौटी ज्ञान-विज्ञान
अपने पुत्र को योग्य गृहस्थाश्रमी बनाना चाहता है। यानी का द्वार, पर वह दीक्षा जो लोभ लालच, विषय-वासना-द्वेष
उसका पुत्र विवाहित हो जाय, एकाध सन्तान हो जाय वैमनस्य कलह फूट, अशान्ति और उद्दण्डता के दरवाजे खोल
और वाणिज्य करने लग जाय । क्या करता है कि वह अपने देती है दीक्षा नहीं-दीक्षा का भूत (शैतान) है।
सात वर्ष के बच्चे का ब्याह इसलिये कर देता है कि बड़े २ दार्शनिकोंने भी इस महती दीक्षा का मूल्य
गृहस्थ के धर्म संस्कार उस पर बहुत उत्तमता से जमजाय, मालूम करने में अपनी असमर्थता प्रगट की है पर आज के
जल्दी ही सन्तति हो जाय, और उसी उम्र में बाणिज्य में नव-नीत बाल-दीक्षा के पक्षपाती आचार्यों ने इसका मूल्य
लगा कर उसे गृहस्थी की दीक्षा दे डाली है । बाचकवृन्द ! बाजार में बिकने वाले आम और लीचीसे भी अधीक नहीं आप ही अपने आप को पूछिये कि आप उस पर हँसेंगे या समझा है. जब जरूरत हई चेले को बनाया किसी दिन उसकी तारीफ करेंगे। उस लड़के का क्या हाल होगा, ठीक को, और किया चेला तैयार-नसाया-भगाया छिपाया और एसा ही जैसा कि धोबी के कुत्ते का-जो न घर का और न नाना प्रकार के प्रलोभनों में फंसा कर जीवन विकास के घाट का। यह प्रसंग बाल-दीक्षा-संस्कार विज्ञान का विश्लेपहिले ही बेचारे छोटे अनुभव रहित बच्चों को धर्म के नाम षण करक बता दता है कि याद आशाजत आर अपारप पर अपने चंगुल में फँसा लेते है। फिर चाहे उनके माता उम्र के बालक म गृहस्थ धम क सस्कार-जा साधु-धमक पिता भाई बन्धु सम्बन्धी छाती पीट पीट कर क्यों न रोते रहें। मुकाबिले में बहुत ही कमजोर है, उत्तम रीति से नहीं जम
प्रकृती की पुस्तक अपने नदी-नद-पहाड झरने वक्षा- सकते तो यह आशा करना कि साधु-धर्म के संस्कार, जो बली, पशु-पक्षियों द्वारा साफ तौर से शिक्षा दे रही है कि गृहस्थ धर्म से बहुत ही जटिल है, जम जायँगे, एक दुराशा समय प्राप्त करके ही, वे सुन्दरता को प्राप्त करते हैं, फल मात्र ह बाद स तल निकालन का प्रयास ह। कमा कमा देते हैं और सन्तान पैदा करते है। कच्ची सरसों से तेल नहीं बाल-दीक्षा के समर्थक प्राचीन आचार्यों के दो एक उदानिकलता। परन्तु हमारे बाल दीक्षा के समर्थकों का काई हरण रखकर अपने मत की पुष्टि करते हैं परन्तु उन्हें स्मर्ण नया ही मानस-शास्त्र (aychology) होगा जिससे रखना चाहिये कि प्रत्येक नियम के पीछे अपवाद लगे हुए उन्होंने यह तरकीब भी शायद निकाल ली हो कि समय के है। संसार के जबरदस्त लुटेर मा० दृढ़ग्रहारी और अर्जुन-. पहिले ही जीवन के रहस्य से बिलकुल अनभिज्ञ बच्चों को माली जैसे महान् हिंसक भी जब उसी गति मे मोक्ष के जिनका जीवन बिलकुल कची सरसों के सदृश है इस दीक्षा अधिकारी हुए है तो क्या हमयह समझरटे कि संसार के के कोल्हू में डाल कर तेल निकाल सकें.
जबरदस्त लुटेरे और महान हिंसक दृढ़प्रहारी सभी अर्जुन माली बाल दीक्षा विशारद! एक अशिक्षित (untrained) की तरह मोक्ष के अधिकारी अवश्य होगे-कदापि नहीं। घोडे को गाडी में जोत देने का क्या परिणाम होता है ?
(अनुसंधान पृ. १०९ पर देख) Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bonibay and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pydhoni, Bombay 3.