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________________ . जैन युग. वीर संवत् २४५७. हिन्दी विभाग. ता. १५-३-३१. कविवर श्री कन्हैयालाल जी के धर्म के व्यवस्थापक, रक्षक, प्रचारक, उपदेशक और आचार्य होते हैं। त्याग की मूर्तिमान् प्रतिमा माने भाषण का कुछ अंश. जाते हैं और त्याग का उद्देश्य ही लक्ष्यमें रखके इस (गतअकसे चालु.) साधु सम्प्रदाय की नीव भी पड़ी है। जैनधर्म का अजैनों को जैन बनाने का यत्न छोड़ कर सना त्याग, आदर्शतप, पूर्ण वीतरागता और निष्काम एक गच्छ वाले दूसरे सम्पदाय वालों को तोड़ फोड़ परोपकारिता इन्हों लोगों में पाई जाती है परन्तु लेने में ही वीरता समझते हैं, और इस प्रकार जनी कलिकाल अथवा पंचम आरे के पाप प्रवाह का इनके ही जैन शक्ति का हास करते है। आज हम संघटन कुछ अंश पर भी प्रभाव विना पडे न रहा और गच्छ से कितनी दर हो गये हैं। जिन आचार्यों के अनु- आम्नाय तथा पार्टी बन्दियों के यही मुख्य नेता बन यायी होने का दावा करते हैं, जिन के नाम लेकर गये। जो कभी प्रेम और सद्भाव की मूर्ति थे, पवित्र गच्छों के झगड़ों पर सिर तोडने और तुडाने को त्याग ही जिन का लक्ष्य था, स्व-परहित-साधन ही तैयार हो जाते हैं उन्हीं का अच्छे कामों में अनुसरण जिनका कर्म था, धर्म की पुनीत भावनाएं फैलाना नहीं करते हैं। जिन का ध्येय था. प्रेममय. अहिंसामय शान्ति का प्यारे भाईयो ! प्रचार का, वृद्धि का, उन्नति प्रचार ही जिनका उद्देश्य था और संसार रल्याण का तो वही कार्य है. उसी से हम जैनत्व का प्रचार कारी महामंगलमय मुक्ति-पंथ का प्रदर्शन कराना ही कर सकते हैं, उसी से हम अपने त्रिकाल सत्य जिनका एकमात्र कर्तव्य था उनमें ही आज ईर्ष्या. सिद्धान्तों को देशव्यापी बना सकते हैं, उसी से हम द्वेप, दम्भ और अहम्मन्यता के भाव दीख पड़ते हैं। अपनी मृतक तुल्य जाति में नवजीवन संचार कर अब समय परिवर्तित हो रहा है। हमारे सासकते है न कि क्रियाओं का तथा अन्य छोटे छोटे माजिक नेताओं को आगे बढ कर सामाजिक क्रान्ति मतभेदों का प्रचार करके। हम कैसे अन्वे होगये आरम्भ कर देनी चाहिए । देश मे जब एक महान हैं कि वृक्ष की जड को न सींच कर पत्तों को पानी . शक्ति शाली साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रिय क्रान्ति देते हैं। जिन महावीर भगवान की अङ्क में राजा उत्पन्न ही नहीं बल्कि आरम्भ भी हो गई है तब रङ्क ऊंच-नीच सभी समभाव से स्थान पाने थे, क्या हम में इतना भी बल नहीं है कि हम कमसे जिनके पट्टधर और आचार्य, शुद्धि का, सहकारिता कम अपने ही सुधारों के लिये सामाजिक क्रान्ति का, पारस्परिक ऐक्य का, और भेद-भाव त्यागने भी आरम्भ कर दे। क्या हम इतने शक्तिहीन और का उपदेश देते रहे आज उन जैनियों की इतनी पंगु हो गये हैं कि अपने ही धर्म ध्वजियों द्वारा हीनावस्था है, उनका विचार-क्षेत्र इतना संकोर्ण प्रचार के स्थान में विध्वंस होते देख कर भो होगया है, उनका हृदय इतना अनुदार है कि वे आपस में भी एक स्थान पर मिल कर बैठ नहीं जवान नहीं हिला सकेंगे? यदि ऐसा है तो भगवान ही इस जातिकी रक्षा करें। सकते । जैनेतरों को तो अपने में मिलाने की बात ही क्या है जब कि ओसवाल जाति परस्पर भी रोटी-बेटी (अपूर्ण). का व्यवहार नहीं करती। Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain जैन साधु-पहिले क्या थे अब क्या है Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay भगवान महावीर और उनसे पहिले के काल and published by Harilal N. Mankar for कालShri Jain Swetanber Conference at 20 से जैनधर्म में साघु सम्पदाय चला आता है। वे ही Pydhoni, Bombay 3.
SR No.536271
Book TitleJain Yug 1931
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1931
Total Pages176
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size12 MB
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