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वेदार्थ और आख्यान*
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डॉ. कमलेशकुमार छ. चोक्सी+
वेद के विषय में सभी विद्वानो में कम से कम दो मत ऐसे हैं कि जिनके विषय में कोई मतभेद नहीं है । एक मत 'वेद' की प्राचीनता को लेकर है । सभी विद्वान् 'वेद' को प्राचीनतम ग्रन्थ स्वीकार करते हैं । दूसरा मत 'वेद' के मूलपाठ (Text) को लेकर है । वेद के मूल पाठ के बारे में भी सभी विद्वान् मतैक्य रखते हैं कि वेद का मूलपाठ जैसा पहेले था वैसा ही आज भी है । उसमें कोई पाठभेद या पाठान्तर आया नहीं है ।
इन दो मतों के अतिरिक्त वेद विषयक अन्य जो भी मत हैं; उन में विद्वानों के कई कई मत प्रवाह है । इन विभिन्न मत-प्रवाहों का 'वेद' के अर्थघटन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पडा है । परिणामतः वेद के अर्थघटन के भी कई मत प्रचलित हो गये ।
प्राचीनकाल से ही वेदार्थघटन की आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक प्रक्रियायें प्रचलित रहीं हैं । कालान्तर में दैवतप्रक्रिया तथा याज्ञिकप्रक्रिया का आविर्भाव हुआ । मध्यकाल में ये दोनों प्रक्रियायें वेदार्थ पर छायी रहीं । इसी समय में ऐतिहासिक प्रक्रिया का व्यापक प्रचलन आरंभ हुआ । इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आख्यान प्रक्रिया आई और उसका भी क्रमशः विकास होता रहा ।
अठ्ठारवीं शताब्दी में, जब पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृतभाषा और संस्कृतविद्या के अध्ययन-संशोधन की ओर अपनी दृष्टि की, तब 'वेद' भी उनकी दृष्टि से पर न रह सके । वेद और वेदार्थ को समझने के लिए उन्होंने भी भारी परिश्रम किया । उन्होंने अपने देश धर्म की मान्यताओं को साथ रख कर भारतीय परंपरा का अनुसरण करते हुए वेद के अर्थघटन करने का प्रारम्भ किया । इसी परम्परा में भाषाविज्ञानानुसारी वेदार्थघटन की एक ओर प्रक्रिया अस्तित्व में आयी । इस में संसार की विभिन्न भाषाओं में प्रचलित शब्दों का उनके ध्वनियों के साम्य के आधार पर अर्थ निश्चित करने का प्रयास किया गया । इस प्रयास से निर्धारित किये गये शब्दार्थ को वेद में प्रयुक्त शब्द का अर्थ मानकर वेद के मन्त्रों का अर्थ बताया गया । भाषाविज्ञान को आकारित करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों ने जो अवधारणायें कल्पित की; उन का तथा तत्तत् विद्वानों के स्वसंप्रदाय में स्थिर हुए विविध मन्तव्यों का भी इस वेदार्थ पर असर रहा है ।
वेदार्थघटन की इन विविध प्रक्रियाओं की श्रृंखलामें उन्नीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध समाजसुधारक संस्कृत भाषा के पण्डित स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत वेदार्थ घटन भी एक । यह वेदार्थघटन अपने आप में अर्वाचीन होता हुआ भी वेद के पुरातन अर्थघटन को उजागर करने वाला है । इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें वेदार्थकर्ता की वेदविषयक जो मान्यताएँ हैं, उन सभी मान्यताओं को प्रथमतः स्पष्ट कर दिया गया है, और फिर उन मान्यताओं का पूर्णत: अनुसरण करके वेदार्थघटन किया गया है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेद के विषय में जो मान्यताएँ हैं; उनमें एक यह भी मान्यता है कि ★ आर्यसमाज - सान्ताक्रुज, ( २४ जनवरी से २६ जनवरी २००२) में आयोजित वेद गोष्ठी में प्रस्तुत किया गया लेख । प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, भाषा साहित्यभट गुजरात युनिवर्सिटी, अमदावाद - ९
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