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पर एक मात्रा (लघु) दो मात्रा (गुरु या दीर्घ) तथा तीन मात्रा (वृद्ध) इस हिसाब से विभाजन किया जाता तथा साम में प्रयुक्त मात्रा के अनुसार अङ्गुष्ठ से विभाजन के इन चिह्नों का स्पर्श किया जाता है 134 अंगुलियों पर स्वर- व्यवस्था किस प्रकार की जाती है इस विषय में ना-शिका कथन है कि अङ्गुष्ठ के ऊपर स्थान पर क्रुष्ट तथा अङ्गुष्ठ पर प्रथम स्वर स्थित होता हैं । प्रदेशिनी अर्थात् तर्जनी पर गंधार तथा मध्यमा पर ऋषभ स्वर स्थित हैं । अनामिका पर षड्ज का स्थान है तथा कनिष्ठिका पर धैवत स्थापित किया जाता है 135 गात्रवीणा का ऐसा ही उल्लेख माण्डवी शिक्षा में भी उपलब्ध होता है । किन्तु वहाँ मध्यमा पर पंचम स्वर को अवस्थित बताया गया है । इसमें ऋषभ का कहीं उल्लेख नहीं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'मध्यमायां तु पंचमः' जो कहा गया है उसमें "पंचम" के स्थान पर "ऋषभः” पद होना चाहिए । क्रुष्ट और पंचम एक ही स्वर के बोधक हैं इसलिये भी ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'पंचम:' यह पाठ शुद्ध नहीं ।
गात्रवीणा पर साम-स्वरों के गान की परम्परा शिक्षा एवं प्रातिशाख्यों के समय प्रचलित हुई । प्राचीन काल में तो उदात्त आदि स्वरों का भेद तथा प्रथम द्वितीय आदि साम-स्वरों का भेद उच्चारण से ही स्पष्ट हो जाता था, किन्तु कालान्तर में उन स्वरों को सिखाने के लिये गोत्रवीणा का प्रयोग किया गया होगा । गात्रवीणा पर सीखे हुए साम के उच्चारण में हाथ और उच्चारण का सम्बन्ध इतना घनिष्ठ हो गया कि शिक्षाकारों को दोनों का साथ-साथ उच्चारण करने का विधान करना पड़ा । हाथ के बिना केवल उच्चारण मात्र से गान को भ्रष्ट समझा गया । याज्ञवल्क्य शिक्षा स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख करती है कि स्वर और हाथ दोनों उच्चारण में एक साथ चलने चाहिए ।" जो व्यक्ति हाथ से रहित स्वर का उच्चारण करता था वह भ्रष्ट समझा जाता था उसको वेद-फल की प्राप्ति नहीं होती थी । 38 जो व्यक्ति ऋज्, यजुष् और साम का उच्चारण हाथ से रहित करता था वह वैदिक कहलाने का भी अधिकारी नहीं
बनता था 139
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उपर्युक्त सभी विवरणों से यह कह सकते है कि सामगान की परम्परा लुप्त हो जाने के कारण सामगान के मूलरूप को प्रस्तुत करना अत्यन्त कठिन है सामस्वर सिद्धान्त सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों में जो सिद्धान्त मिलते है उन्हीं का विवेचन प्रस्तुत किया है ।
6.
7.
पादटीप
1. तेषां खाण्डिकेयौखेयान्तं चातुः स्वर्यमपि क्वचित् । भा.सू. 3.27
2.
अनुदात्तं पदमेकवर्जम् । पा. 6.1.158
3.
8.1.18, 20-23 पा.
4. इदमोऽन्वादशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ । पा. 2.4.32
5.
उभे वनस्पत्यादिषु युगपत् । पा 6.2.139. देवता द्वन्द्वे च. पा. 6.2.140; नोत्तरपदेऽनुदात्तादावपृथिवीरुद्रपूपमन्थिपु - पा. 6.2.141; तवैचान्तश्च युगपत् - पा. 6.2.51
तेषां खाण्डिकेयोखेयानां चातुः स्वर्यमपि क्वचित् ।
शतपथवत्ताण्डिऽभाल्लविनां ब्राह्मणस्वर: । भा.सू. 3.15; ना.शि. 1.1.13
३८
सामीप्य: पु. २४, खंड १ -२, सेप्रिल- सप्टे. २००७
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