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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वस्तुओं के दर्शन, श्रवण तथा कीर्तन उद्दीपन, सम्बन्धित पदार्थ की प्रशंसा करना, आँसू आना तथा गदगद होना अनुभाव, हर्ष तथा आवेग आदि सञ्चारी भाव तथा विस्मय स्थायी भाव होता है । पञ्चम अंश के अध्याय इक्कीस के श्लोक सं० २१ से २४ तक अद्भुत रस की उपस्थिति है । भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम गुरुसान्दीपनि से शिक्षा ग्रहण करते हैं। दोनों ने केवल चौंसठ दिनों में रहस्य तथा सङ्ग्रह के सहित (अस्त्रमन्त्रोपनिषत् तथा अस्त्र प्रयोग) सम्पूर्ण धनुर्वेद सीख लिया । सान्दीपनि ने जब उनके इस असम्भव और अतिमानुष कर्म को देखा तो यही समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा ही मेरे घर पर आ गये । यह पूर्ण प्रकरण विस्मयकारी है । इतने कम दिनों में इतनी गुरुगम्भीर विद्या को हृदयंगम कर लेना विस्मयोत्पादक है। भगवान श्रीकृष्ण विष्णु के अलौकिक कर्म तथा स्वरूप का अनेकशः वर्णन मिलता है । इन स्थानों पर अद्भुत रस का अधिवास है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९. शान्त रस : इस रस में परमात्मा का चिन्तन तथा संसार की अनित्यता का ज्ञान आलम्बन, सत्सङ्ग, पुण्य आश्रम आदि उद्दीपन, शरीर में रोमाञ्च हो जाना आदि अनुभाव, मति हर्ष तथा स्मृति आदि अनुभाव तथा शम (चित्त की शान्ति) या निर्वेद (संसार के विषयों के प्रति वैराग्य) स्थायी भाव है । विष्णुपुराण के प्रथम अंश के अध्याय १७ में प्रहलाद चरित वर्णित है । प्रहलाद दैत्यकुमारों से कहते हैं कि 'मूर्ख लोग अपनी बाल्यावस्था में खेलकूद में लगे रहते हैं, युवावस्था में विषयों में फँस जाते हैं और बुढ़ापा आने पर उसे असमर्थता के कारण व्यर्थ ही काटते हैं । इसीलिए विवेकी पुरुष को चाहिये कि देह की बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओं की उपेक्षा न करके बाल्यावस्था में ही अपने कल्याण का यत्न करे । मैंने तुम लोगों से जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नहीं समझते तो मेरी प्रसन्नता के लिये ही श्री विष्णु भगवान का स्मरण करो । इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि यहाँ प्रहलाद को परमात्मा की अनुरक्ति की व्यञ्जना ही अभीष्ट है एतएव शान्त रस है । तृतीय अंश के अध्याय अठारह के चतुर्थ अंश के अध्याय दस में श्लोक संख्या २३ से २९ तक शान्त रस का अत्यन्त मनोरम वर्णन उपलब्ध है । इस प्रकरण में महाराज ययाति अपने चित्त को सांसारिक भोग-वृत्तियों से विरत कर श्री भगवान में लगा देते हैं । विष्णुपुराण में शान्त तथा भक्ति रस में प्रतिद्वन्दिता है कि कौन आगे है । विष्णुपुराण का उद्देश्य ही है कि भक्त के चित्त में भगवान अच्युत् के श्रीचरणों में अखण्ड भक्ति हो एवं उसे परम शान्ति की प्राप्ति हो । २८ १०. वात्सल्य रस : इस रस का आलम्बन है भाई-बहिन, पुत्र तथा कन्या, अपने से छोटों के प्रति प्रेमपरक वात्सल्य, ही यहाँ स्थायी भाव होता है। बालक की तोतली बातें आदि उद्दीपन तथा स्नेह से गोद में लेना, आलिंगन करना तथा सीस सूँघना आदि अनुभाव है । समीक्ष्य पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय दो में श्लोक संख्या १०२-०३ में वात्सल्य रस है । महाराज मान्धाता अपनी पुत्रियों से मिलने महर्षि सौभरि के आश्रम में जाते हैं । महाराज अपनी कन्या का स्नेहपूर्वक आलिङ्गन कर आसन पर बैठते हैं। पुनः उनका वात्सल्य उमड़ पड़ता है । वे बढ़ते हुये प्रेम के कारण नयनों में जल भर कर कहते हैं कि 'बेटी तुम लोग यहाँ सुखपूर्वक सामीप्य : खोटो. २००६ - भार्य, २००७ For Private and Personal Use Only
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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