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में उलझ कर स्वनिर्मित संसार के दुःखों को सहन करता हैं । इस विषम स्थिति से उबारने के लिए सूरदास प्रार्थना करते हैं :
"तृष्णा नादू करत घट भीतर, नाना विधि दे ताल | माया को कटि फेटा बांध्यों, लोक तिलक दिए भाल । कोटिक कला काछि, दिखराई जल पल सुधि नहीं काल ।
सूरदास की सबै अविद्या दूर करो नंदलाल || (वही, पृ. 51 )
।
भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में भक्ति एवं शरणागति द्वारा ही जीव इस खोए आनन्द को पुनः प्राप्त करता है और संसार के दुःखों को सहन करता है और संसार के दुःखों से मुक्त होकर वह चार प्रकार की मुक्तियाँ प्राप्त करता है :- सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य और सारूप्य वह जन्म मरण के चक्र से । । मुक्त होकर भगवद् लीला के अपार आनन्दका सहभागी बन जाता है ।
वल्लभाचार्य ने जीवों का सूक्ष्म वर्गीकरण किया है जिसमें उन्होंने मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों एवं आध्यात्मिक महत्व पर विशेष ध्यान दिया है । जीव मूलतः दो प्रकार के हैं- दैवी जीव एवं आसुरी जीव । देवी जीव ब्रह्म के अधिक समीप है। उनका उद्धार शीघ्र हो जाता है । आसुर जीवों को कई जन्म जन्मांतरों का चकर लगाने के पश्चात् जब उनका जीवन पुनीत हो जाता है, तभी उनका उद्धार होता है । जीवों के संबध में सूरदास ने अधिकतर विनय शरणागति, दैम्प भाव एवं भगवद् मिलन की
आतुर विवतो व विरह का ही वर्णन किया है। शास्त्रीय विवेचन अत्यन्त अल्प ही है ।
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पतित पावन जानि सरन आयौ
उदधि संसार सुम नाम नौका तरन, अटल अस्थान निजु निगम गायौ ।
सूर प्रभु स्वरन चित्त चेति चेतन करता, ब्रह्म- सिव-सेस - सुक-सन बुध्यायौ । (सू.सा., पृ. 49 ) अब माहि सरन राखिये नाथ ।
कृपा करी जो गुरुजन पठए, बहयौ जात गयौ हाथ ।
अहं भाव से तुम बिसराए, ईतनेहिं छुट्यो हाथ भवसागर में परयौ प्रकृति बस, बांध्यो फिरयौ अनाथ ।
कर्म, धर्म, तीरथ, बिनु राघव, हवे गए सकल अकाय ।
अभय दान दे, अपनी कर घरि सुरदास के माथ (सू.सा., g68)
जगत विश्व एवं ब्रह्माण्ड
अक्षर ब्रह्म स्वेच्छा से चिद् एवं आनन्द का तिरोधान करते हुए जगत के रूप में आविर्भूत होता है । अतः परब्रह्म का सत् तत्व ही जगत है ।
जगत ब्रह्म का विकृत परिणाम है । ब्रह्म ही इसका निमित्त (निर्माता) एवं उपादान, ( पार्थिव ) कारण है । इसकी उपमा "मुण्डक उपनिषद" मकड़ी से देता है। मकड़ी अपनी ही देह से जाले का निर्माण करती है और पुनः उसको अपने में ही समेट लेती है ।
ब्रह्म ही जगत का समवायी व निमित्त कारण है। वह अपने आप में रमन करते हुए अपने सुख के लिये प्रपंच की संरचना करता है। जगत ब्रह्म के सत् तत्व से आविर्भूत होने के कारण वह सत्य एवं सूरदास एवं दादेव ]
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