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1. वासुदेव रूप में भगवान श्रीकृष्ण मोक्ष प्रदान करते है अर्थात् अहंता एवं ममता के व्यामोह से मुक्त करते हैं ।
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2. प्रद्युम्न के रूप में सृष्टि का संरक्षण करते हैं तथा उसकी वंश परंपरा को गतिशील रखते हैं । काम और गृहस्थ जीवन के माध्यम से इसे सम्पन्न करते है ।
3. अनिरुद्ध रूप में धर्म की रक्षा करते हैं आध्यात्मिक जीवन को प्रश्रय देते हुए मानव जीवन को उदात्त बनाते हैं ।
4. संकर्षण रूप में अधर्म और दुष्कृत्यों का विनाश करते हुए धर्म की संस्थापना करते हैं । श्रीमद् भागवत को आधार बनाकर वल्लभाचार्य अवतार के हेतु की व्याख्या करते हैं :
धर्मसंस्थान व दुष्कृत्य करनेवालों के अतिरिक्त अवतार का एक और प्रमुख हेतु है, सृष्टि को आनन्द प्रदान कराना । इसके लिए भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अलौकिक लीलाएँ चरितार्थ की जिसे वे यशोदानन्दन के रूप में सम्पन्न करते है । इसकी चरम परिणति रासलीला में होती हैं जो निरन्तर आनन्द प्रदान करती है । गोप, गोपी, ग्वालबाल के संग श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएँ, रसात्मक आनन्द प्रदायिनी हैं जो लौकिक व्यवहार से ऊपर उठकर, जीवों के अंतर्तम में निवास करनेवाले, आध्यात्मिक धाम में प्रवेश करती हैं । इसलिए भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला, नित्य यानी शाश्वत है । जब भगवान का अवतार होता है तब वे अपनी आनन्द प्रसारिणी शक्तियों के साथ अवतरित होते हैं । जिस भूमि पर वे अवतरित होते हैं वह पावन हो जाती है । इसलिए व्रजभूमि मात्र भौगोलिक प्रदेश नहीं है । वह तो लीला पुरुषोत्तम का अनन्त आध्यात्मिक दिव्य धाम है । सूरदास ने व्रजभूमि, भगवद् क्रीडा व रासलीला पर अनेक पद रचे हैं ।
1. वंशीवट वृंदावन यमुना, तजि वैकुंठ न जावे
सूरदास हरि को सुमरन करि, बहुदिन भव चल आवे (सु.सा., पृ. 116 ) 2. रास - रस-रीति बरनि आवे ।
कहां वैसी बुद्धि, कहां वह मन लाहौ-कहां चित्त, जिय भ्रम भुलावै ॥
जो कहौं कोन माने, जो निगम-अगम-कृपा विनु नहीं या रस हि पावे । (वही, पृ. 608) रासलीला तो जीव और भगवद् मिलन के आनन्द रस प्राप्ति की अलौकिक लीला है । वह तो भाव-समाधि ही है ।
जीव सिद्धांत : ब्रह्म के सद् चिद् एवं आनन्द, स्वरूप में जब सत् एवं चिद् का आविर्भाव होता है और आनन्द का तिरोभाव हो जाता है तब अनेक जीवोंकां आविर्भाव होता है । ये जीव ब्रह्म के अंश है जिस प्रकार स्फुलिंग अग्नि के होते है ।
अक्षर ब्रह्म ही अगणित जीवों के रूप में अभिव्यक्त होता है और समस्त शरीर में व्याप्त रहता है । चैतन्य या चैतना ही जीव का प्रमुख गुण है। " जीवस्य हि चैतन्य गुणः स सर्व शरीर व्यापी” (अणुभाष्य, 2-3-25) जब ब्रह्म के षड् गुणों श्री, यश, ऐश्वर्य, वीर्य, ज्ञान, वैराग्य में से उसकी इच्छा से कोई भी गुण तिरोहित हो जाता है तो उसमें इतनी न्यूनता भा जाती है तब जीव का आविर्भाव होता है, जो ब्रह्म से अलग हो जाता है ।
इन गुणों के तिरोहित होने के कारण मनुष्य भ्रमित हो जाता है और अविद्या माया के मोह जाल
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[ Samipya : April, 291 March, 1992
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