SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Reg. No. G50 वृहद् ग्रन्थ प्राचीन कर्म-साहित्य के आधार से है। इस प्रकरण की एक मात्र प्रति राजस्थान बना रहे हैं जिसके छपे हुये कुछ फर्मे अभी- प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहस्थ अभी अहमदाबाद में विजयजंबूसरिजीने मुझे गुटके में है। संवत 1625 में नागोर के पास दिखाये थे। इस तरह 2000 वर्षों से जैन के डेह प्राम में खरतरगच्छीयवादि विद्वान विद्वानोंने प्रचुर कर्म साहित्य का निर्माण किया हीरकलशने इस प्रकार को लिखा है। प्राकृत है। प्रो. हीरालाल र. कापड़ियाने कर्म-साहित्य भाषा की 172 गाथाओं में आठ कर्मों का की परिचायक एक पुस्तक लिखी है। उसके विचार इस प्रकरण में दिया गया है। जिसका अतिरिक्त भी इस विषय की कई रचनायें मेरी ग्रन्थ परिमाण 215 श्लोकों का बतलाया गया जानकारी में हैं जिनमें से वाचक साधुरंग है। खेद है कि प्राप्त प्रति में मोहनीयकर्म के रचित "कर्म विचार सार प्रकरण" का संक्षिप्त विवरणवाली 29 गाथायें छूटी हुई हैं। उस परिचय यहां दिया जा रहा है। ओसवाल ग्रंथ की प्रारम्भ की 2 और अन्त की 4 गाथायें पाल्हा श्रावक की अभ्यर्थना से यह प्रति रची गई नीचे दी जा रही है। आदि-अटेवय कम्माई, अडवन्न सय तु होइ पयढीणं / आरंभेण बंधइ, मिच्छत्तण इमाएणं ॥१शा कम्मेण रूलय जीवो, कम्मेणं लय उच्च नीच पयं / कम्मेण सुई च दुई, कम्मेणं नरय तिरिय गई // 2 // रइयं पगरण मेयं परमाणदेण साहुरंगेण / पाल्हा सुसावयस्सय कईया अब्भुत्थणाइ इदं // 55 // ओएसवाल निम्मल कुल संभव परम सावएण इम / पाल्हा सुसाबएणं पढिज्ज माणं थिरं होउं // 56 // जावइ मेरू गिरिन्दो जाठ पभासइ दिणयरा लोयं / जाव सिसि भझरइ सुहं ताव इमं पगरणं जयवो // 57 / / जं किंपि मंद मयणा भणिथं अन्नाण सुय विरूद्धं / तं सव्वं खमियव्वं सोहिय त्वंच विबुहेहिं // 58 // // इति कर्म विचार सार प्रकरणं समाप्तं // प्रन्थ गाथा 172 मान / / श्लोक संख्या 215 ज्ञेया / / कृतं वा० साधु-रंगेभ्यः // सं. 1625 वर्षे / / वाषाढ़ शुदि 11 सोमे // श्री डेहि मध्ये लिखित हीरकलश हेमराज सहितेन // आठ कर्मो के वर्णनवाली गाथाओं की संख्या क्रमश: इस प्रकार है-१५, 8, 21, (29), 23, 11, 11, 58 / प्रकरण के रचयिता माधुरंग खरतरगच्छ के वही विद्वान् मालूम होते हैं जिनके रचित सूयगडांग सूत्र दीपिका (संवत् 1599 काती वरलु ग्राम में रचित) प्रकाशित हो चुकी है। वैसे खरतरगच्छ में एक साधुरंग और हो गये हैं पर उनका समय कुछ पीछे का है। प्रस्तुत प्रकरण की प्रति सं. 1625 की लिखित है। इसलिये इसकी रचना इससे पहले की सिद्ध होती है / इसका जो बीच का मोहनीय प्रकरणवाला अंश कम है और कहीं कहीं कुछ अक्षर त्रुटित है. ड्रम लिये दूसरी पूरी प्रति की खोज अत्यावश्यक है। પ્રકાશક : દીપચંદ જીવણલાલ શાહ, શ્રી જૈન ધર્મ પ્રસારક સભા-ભાવનગર - મુદ્રક : ગીરધસ્લાલ ફુલચંદ શાહ, સાધના મુદ્રણાલય–ભાવનગર For Private And Personal Use Only
SR No.533955
Book TitleJain Dharm Prakash 1966 Pustak 082 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1966
Total Pages16
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy