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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री न धर्म मश :: ८० : : वार्षिक स्पा ५ ५-२५ પાસેજ સહિત अनुक्रमणिका १ भनी नि पता .... .... (मालय सिय “साहित्यय") ६५ '२ श्री पद्धभान महावीर : मां४ ५८ .... .... (स्व. भौति) ६१ ૩ આનંદી વૃત્તિ .... (मालय शियह “साहित्यय'") १८ ૪ બધુ સમગ અને એનાં વિવરણનું સરવૈયું (પ્રો. હીરાલાલ ૨. કાપડિયા એમ. એ.) ૭૧ પ ચૌદ ગુણસ્થાન .... (प्रा. नर्मदा ४२ शास्त्री-भावनगर) ७५ ६ संसार दावानल स्तुतिकी एक प्राचीन भाषाकी टीका (अगरचंद नाहटा) टा. पेज ३ સ ભા સ દો ને સૂચના બહારગામના લાઈફ મેમ્બરેમાંથી કેટલાંક બંધુઓએ પોસ્ટેજ મોકલીને ભારતીય દર્શનની રૂપરેખા નામનું પુસ્તક (સં. ૨૦૨૦ ની સાલનું) ભેટ તરીકે પસ્ટેજના ૩૦ નયા જ પૈસા મોકલી મંગાવી લીધું છે. હજુ જેઓએ ન મંગાવ્યું હોય તેઓએ જલદીથી મંગાવી લેવા તરદી લેશે. -જૈન ધર્મ પ્રસારક સભા-ભાવનગર નવા સભાસદ ૧ કુન્દનલાલ કાનજીભાઈ ભાવનગર લાઇફ મેમ્બર (1/2 ४ ४ थी श३) संसारू नइ विरहि करि वरू प्रधानु । हे श्रुत- साहित्य विकास मण्डल से प्रकाशित “पंच देवति तुम्हि किसा छइउ । आमूल लगी लोल- प्रतिक्रमण की प्रबोध टीका" के गुजराती चंचल धूरि परागु तीय नउ बहुल घणु परिमलु संस्करण में प्रथम पद्य का छन्द इन्द्र वजरा तेऊ भणित अगारू घरि तिणि भूमि निवास, बतलाया है जब की हिन्दी संस्करण में उसका तम्हारउ अनइ छाय सरीर शोभा तीय नउ संभारू नाम उपजाति दिया है।जराती संस्करण में समूह तिणि करी सारू अनइ वर कमल करे विवेचन बहुत विस्तृत है और अन्त में एक कमलहस्त अनइ तार देदीप्यमान तारा तिणि नया प्रवाद लिखा गया है कि हरिभद्रसूरिजीने करी अभिराम। अनइ वणी संदोह वाणी समुद्र १४४४ ग्रन्थ की रचना करने का संकल्प किया देह, जेहनउ स सरस्वती देवता भव विरह वरू था। उनमें से १४४० ग्रन्थ तो बन गये, पर सारू मोक्ष दिया ॥४॥ ४ बाकी रह गये तब इस स्तुति के ४ पद्य अन्य स्तुतियों की तरह ४ पद्य वालो इस बनाकर संख्या की पूर्ति कर दी। वास्तव में स्तुति में प्रथम पद्य में महावीर स्तुति दूसरे यह प्रवाद सही नहीं है क्योंकि अभयदेवसृरि, में सर्व जिनों की, तीसरे में श्रुतसागर या मनिचन्द्रसरि, और देवसरिने सूरीजीकी रचनाओं द्वादशांगी और चौथे में श्रुतदेवी की स्तुति है। की संख्या १४०० ही बतलाई हें । राजशेखर ४ पद्य क्रमशः उपजाति, बसन्ततिलका, मन्दा- सरिने १४४० की संख्या दी है। १४४४ की क्रान्ता, ग्धरा इन ४ छन्दों में है। जैन संख्या पीछे प्रसिद्ध हुई है। For Private And Personal Use Only
SR No.533941
Book TitleJain Dharm Prakash 1964 Pustak 080 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1964
Total Pages16
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size6 MB
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