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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org संसार दावानल स्तुति की अक प्राचीन भाषाकी टीका ले० अगरचंदजी नाहटा इस स्तुति पर ज्ञानविमलसूरी के रचित टीका दया- विमल ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुकी है । पार्श्वचन्द्र तथा एक अज्ञात कृतृक टीका भी इस स्तुति की प्राप्त है । गुजराती और हिन्दी अनुवाद भी पंच प्रतिक्रमण सार्थ वाली पुस्तकों में छप चुके हैं। पं. हरगोविन्ददासने अपने हरिभद्रसूरिवाले निबंध में इस स्तुति की रचना सूरिजीने अंतिम समय में की, ऐसा आमनाय होने का लिखा है। प्रो. हीरालाल कापड़िया और धीरजलाल शाहने एक अन्य प्रवाद का उल्लेख किया है कि इस स्तुति के चौथे पद्य के आद्य चरण की रचना करते हुये हरिभद्रसूरि अवाक बन गये अतः बाकी तीन चरणों की रचना संघने की, इसी लिये उन तीन चरणों को सकल संघ साथ में मिलकर बोलता है । रचना में हरिभद्रसूरि का नाम नहीं है पर अन्त में " भवविरह " शब्द आते रचना उन्ही की है । कापड़ियाजीने प्रश्न उठाया है कि इसकी प्राचीन प्रति कब की मिलती है और प्राचीनतम उल्लेख किस प्रति में है ? आदि बातें प्रकाश में आनी चाहिये । जैन स्तुति स्तोत्र, स्तवन आदि रचनायें • प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती भाषाओं की रचनायें हजारों की 'संख्या में प्राप्त हैं । इनके बहुत से संग्रह - ग्रन्थ भी निकल चुके हैं। पर अभी अप्रकाशित रचनायें प्रकाशित रचनाओं की अपेक्षा बहुत अधिक है । ये रचनायें छन्द, शैली, विषय और भाव की दृष्टि से भी विविध प्रकार की हैं । करीब १५००-२००० वर्षो से इनकी परम्परा बहुत ही अच्छे रूप में चली आ रही है । दि० सम्प्रदाय की अपेक्षा वे. सम्प्रदायने इस प्रकार की रचनायें अधिक संख्या में बनाई और प्रकाशित भी बहुत अधिक हो चुकी हैं । महान् आचार्य हरिभद्रसूरीजी की रचना के रूप में " संसार दावानल " आद्य पद से प्रारंभ होनेवाली वीर स्तुति काफी प्रसिद्ध है । सम संस्कृत भाषा में रचित इस स्तुति का पाठ श्वेताम्बर प्रतिक्रमण में स्त्रियों और साध्वियों के द्वारा तो नित्य प्रति किया जाता है । और श्रावकों में भी इस भावपूर्ण रचना के प्रति विशेष आदर है। इस स्तुति के प्रत्येक चरण की पाद पूर्ति रूप में कई स्तोत्र रचे गये । जिनमें से सुमति कल्लोल रचित प्रथम जिन स्तव और अन्य रचित "पार्श्व जिन स्तव तथा जिन स्तुति " जैन स्तोत्र संग्रह " भाग १-२ में प्रकाशित हो चुका है । २-३ अन्य संसार दावानल, पाद - पूर्ति, स्तोत्र, स्तुति हमारे संग्रह में है जिनका विवरण मैंने अपने " जैन पाद - पूर्ति साहित्य ” नामक लेख में कई वर्ष पूर्व दिया था । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत स्तुति को एक बालाववोध भाषा टीका १५ बी - १६ वी शताब्दी की लिखी हुई प्रति में मुझे प्राप्त हुई है, उसे यहां नीचे दिया जा रहा हैं गाथा संसार दावानल दाह नीरं संमोह धूली हरणे समीरं । माया रसा दारण सार सीरं नमामि वीरं गिरि सार धीरं । For Private And Personal Use Only (पाखी)
SR No.533941
Book TitleJain Dharm Prakash 1964 Pustak 080 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1964
Total Pages16
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size6 MB
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