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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा का स्वभाव लेखक- राजमल भण्डारी-आगर समस्त जीवों का स्वभाव वैसे भीन्न भीन्न उमका धर्म है । अतः आत्मा का स्वभाव भी अनुभव में आता है वस्तुत: यह स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है। आत्मवत् सर्व विभाव दशाका ही प्रतिक है । आत्मा के भूतेषु, अपनी आत्मा के समान ही विश्व की राग द्वेष और अज्ञान ही विभाव हैं। और समस्त आत्मा को समझ कर प्रयत्नशील हो, इस से पृथक वीतरागता एवं विज्ञानता ही सम्यक्दर्शन से सम्यकुद्रष्टि प्राप्त कर जीवन की आत्मा का स्वभाव है। प्रवृत्ति सदा ऐसी हो जो स्वकल्याण एवं पर संसार के समस्त जीवों का एक मात्र की कल्याणकारी हो। लक्ष्व सुख की प्राप्ति का है। परंतु यह बात आत्मा अजर, अमर, निराकार, निर्मल, भी निर्विवाद सिद्ध है कि सुख का मूल सच्चिदानंद, चेतन तत्त्व है। कर्मो से आवृत कारण स्वाधिनता है और वह खाधिनता होने के कारण इस संसार चक्र में भटकना केवल अपने स्वरूप के अवलम्बन से ही प्राप्त है? इसमें अनंत ज्ञान, दर्शन, बीर्य और सुख हो सकती है। जीतने जीतने अंशो में पर निहित है, इसकी शक्ति अजेय और अपार पदार्थ का लेश मात्र भी रहेगा वहां पर स्वा- है। यही अपने सुख दु:ख का कर्ता विकता धिनता होना असम्भव है। और अकेला है। अपने बंधन और मोक्षका अनुभव से यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कारण यह स्वयं ही है। इसी का सहारा ही कि यह आत्मा सदेव सुख का लक्ष्य रखते सचा सहारा है । सब स्थितियों में आत्मा के हुवे भी अपने स्वरूप लम्बन से रहित होकर मूल गुण और स्वभाव को कभी न भूल कर हर राग, द्वेष, अज्ञानादिक के वश से पर पदार्थो दशा में उन्हीं को एक मात्र सत्य समझकर के संयोग से सुख की प्राप्ति करना चाहता वैसी ही आत्मानुभूति करनी चाहिये । है । परन्तु पर पदार्थो से पूर्णतः स्वाधिनता में आत्मा हूं। विश्व की समस्त आत्मा भी प्राप्त न होने से दुःखी ही रहता है। मेरे समान ही है। जो सुख मुझे प्रिय है अतः सिद्ध हुआ कि राग, द्वेष, अज्ञान वह उन्हें भी प्रिय है, जो मुझे अप्रिय है वह ही विभाव है। और यही आत्मा को दुःख भी उन्हें अप्रिय है अत: यह आत्मस्वभाव के मूल कारण हैं। ही मेरा परम धर्म है। मे सब जीवों को सुख पर पदार्थों की प्राप्ति से आत्मा को सुखा- शांति देने में उनका हित करने में तत्पर भास होता है। किन्तु यह सुख अस्थाई व रहूंगा, मैं सबको अपने समान ही समझता पुन: दु:ख का ही कारण है। जहां तक - हूं। शत्रु, मित्र, सब पर प्रेम भाव रखता हूं। आत्मा परपरणीती से पृथक न होकर अपने मै सर्वत्र प्रेममय हूं। इस लिये किसी को स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न कर ले वहां तक मद्य से कोई भय नहीं है और न मुझे भी विभाव दशा की परम्परा का अभाव नहीं होगा। किसी का भय है। मैं कीसी से द्वेष, ईर्षा महर्षियों का कथन है कि 'वस्तु सुहावो और आक्रोश नहीं करता। मै अहिंसा से परिधम्मो', जीस वस्तुका जो स्वभाव है वही पूर्ण हूं। यही मेरा स्वभाव है। (१२८ ) For Private And Personal Use Only
SR No.533916
Book TitleJain Dharm Prakash 1961 Pustak 077 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1961
Total Pages20
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size9 MB
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