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जैन दर्शन।
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सब दर्शन से जीनका दर्शन, अशुभ निकंदन हारा है ।
उस दर्शन की है बलिहारी, दर्शन वह जयकारा है ॥१॥ अनेकान्त है दृष्टि जीसकी, ऐकान्त पक्ष नहीं धारा है।
स्याद्वादके सम्यग् गुणसे, जगमे यह विस्तारा है ॥२॥ मैत्रीभाव से सब जीवो को, शासन रसिक बनाने वारा है।
विशाल भावना जीसमें ऐसी, वह ही सब को प्यारा है ॥ ३ ॥ कर प्रकाशित सत्यतत्व को, मिथ्यातत्व निवारा है। ___अज्ञान संशय भ्रम मिटा कर, सम्यग् ज्ञान प्रचारा है ॥ ४ ॥ इस दर्शन के आद्य प्रणेता, आदीश्वर जगदाधारा है ।
विश्वकल्याण और विश्वशान्ति की वहती जीसमें धारा है ॥५॥ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्म, अपरिग्रह व्रत निरधारा है।
जीव, जीवादि नव तत्त्वों को यह प्रकटावनहारा है ॥६॥ आत्मतत्व का परम गवेषक, सव दर्शन से न्यारा है।
परमातम पद की प्राप्ति का, पथ प्रदर्शनकारा है ॥ ७॥ पट दर्शन जीन अंग कहाये, वहती इसकी धारा है।
ऐकान्त ग्रहणकर हो गये न्यारे, जीससे ही वह न्यारा है ॥ ८॥ भेद प्रभेद और द्वेष क्लेश, ऐकान्त से ही विस्तारा है।
अनेकान्त करता है समन्वय, यह ही जगहितकारा है ॥९॥ परमार्थ दृष्टि इसकी रहती, जो करती परउपकारा है।
इस दृष्टिको जो अपनाते, वोही प्रभु का प्यारा ! है ॥१०॥ जीवन श्रेष्ठ बनाने को, "जैन दर्शन" मुख्य सहारा है ।
जैनधर्म का 'राज' प्रकाश, आतम का उजियारा है ॥ ११ ॥
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राजमल भण्डारी-आगर ( मालवा)
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