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से आनेको भयेयवाले, मानवी में विश्व में ॥ यह रोग है सबही क्षणिक, न स्थायी कहना चाहिये ।। १० ।।।
बारा पा प्राशि का, होगी बन है यही ।। ध्येय उत्तमोत्तम वही, निजरूप लखना चाहिये ॥ ११ ॥
मान आया कहां से ? जग मेगा सम्बन्ध है ? | शाश्वत है भूमि कोनमी ? जहां मुझ को रहना चाहिये ।। १२ ।।
गाना पिना नाग सुना पुन, है नई माथी मं ॥ साथी है मेरे कर्म और, धर्म कहना चाहिये
॥ १३ ॥
भवभव के साथी जो बने, उसका ही रखना ध्यान है | . होवे प्रवृत्ति चैसी ही, यह लक्ष्य होना चाहिये ॥ १४ ॥
शुभ कर्म और जिन धर्म में, तन्मय बने यह आतमा ॥ पुद्गल में नहीं उल्लास हो, उदास होना चाहीये ॥ १५ ॥
जिन धर्म के नव तत्व का, चिंता सदा होता रहे ॥ बुशिफलं तत्वविचारणं च, के भाव होना चाहिये ।।१६।।
देहस्य सारं व्रतधारण च, का बनाना नियम ही। अर्थस्य सारं किल पात्रदानग, में व्यय करना चाहिये ।। १७ ॥
घाचापलं प्रीतिकरं नराणाम् , का हो सउपयोग ही ॥
इन चार बानों को हृदयंगम, अवश्य करना चाहिये ।। १८ ॥ प्रभु वीर का टंकशाली वाक्य, गोयम प्रमाद न कर जरा । इस गंभीरार्थ का निज आत्म में, मनन रहना चाहिये ।। १९ ।।
तय ही सार्थक होगा वह, जीयन का कुछ ध्येय ही। इस ध्येय में ही 'राज' अपना, श्रेय लखना चाहिये ॥ २० ॥
राजमल भण्डारी-बागर ( मालवा )
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