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________________ અંક ૪ થો ] पारसी भाषा की जैन रचनायें जैनाचार्य विद्या के सर्जन एवं प्रचार में बड़े उदार रहे है। उन्होंने बौद्ध विद्यालयों एवं ब्राह्मणपंडितों के पास जाकर भी विद्याध्ययन किया एवं जैनेतर ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन कर परमतशास्त्रवेत्ता भी बने । उन्होंने जैनेतर रचित अनेक ग्रन्थों पर सेंकडो टीकायें बनाकर अपनी उदारता का उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित किया । जिनप्रभसूरिजीने सम्राट् एवं उसके दरबार में प्रभाव बढ़ाने लिये राजभाषा पारसी का अध्ययन भी आवश्यक समझा और उसमें अच्छी योग्यता प्राप्त की । आपके रचित पारसी भाषा के ऋषभदेव स्तवन को संस्कृत अवचूरि एवं गुजराती अनुवाद सह मुनि जिनविजयजीने जैन साहित्य संशोधक खंड ३, अंक १ में प्रकाशित किया है। इसके पश्चात् जिनप्रभसूरि परम्परा की सं. १४२० के लगभग की लिखित एक संग्रहप्रति यहाँ के बृहत् ज्ञानभंडार में हमारे अवलोकन में आयी है जिसमें पारसी भाषा का शान्तिनाथाष्टक प्राप्त हुआ है और इस प्रति में ३०० के लगभग पारसी शब्दों के संस्कृत अर्थ लिखे हुए है। विशेष संभव यह अष्टक एवं पारसी शब्दों के अर्थ जिनप्रभसूरि के ही रचित है। इसके पश्चात् पाटण पोरवाड़ मदनपाल के पुत्र विक्रमसिंहने “पारसी भाषानुशासन" ग्रन्थ बनवाया जिसका विशेष परिचय जैन सत्यप्रकाश कम्रांक ८४ में एवं प्रेमी अभिनंदन ग्रन्थ में देखना चाहिये । १-जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७, अंक ८ में इसका उल्लेख करते हुए प्रो. बनारसीदास जैनने दो भूलें की हैं । १ इस स्तवन का रचयिता रत्नप्रभसूरि लिखा है वह जिनप्रभसूरि होना चाहिये । एवं २ उदयसमुद्र (प्रतिलेखक) का समय १७२८ अनुमान किया जाता है वह भी ठीक नहीं है । १७२८ वाले उदयसमुद्र के गुरु कमलहर्ष थे, लावण्यसमुद्र नहीं और प्रतिलेखन का समय जिनविजयजी १७ बीं से पीछे का नहीं है, बतलाते है। २-विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर आगरे में २१ पद्यों की टीकासह एक प्रति है जिस का १४ वां पद्य फारसी भाषा का है। उसके अन्त में " इति श्री जिनभद्रसूरिकृत पारसीबद्ध श्री जिन नमस्कार काव्यार्थ" लिखा है पर अन्त में षटपद काव्य की वृत्ति में जिनप्रभसूरिरचित लिखा है । अतः यह पद्य एवं टीका भी उन्हीं की संभव है जिनप्रभ के स्थान पर जिनभद्रनाम लिपिकार की गल्ती से लिखा गया प्रतीत होता है । यही १४ वां पद्य विक्रमसिंहरचित "पारसी भाषांनुशासन" के मंगलाचरण का दूसरा पद्य है (देखे जैन सत्य प्रकाश क्रमांक ८५) अतः इस कोष का निर्माणकाल जिनप्रभसूरि के पीछे का निश्चित होता है । ३-मंत्री सोम के पुत्र सलक्ष्य के रचित यवन रासमाला का आदि पत्र भी हमारे संग्रह में हैं। संभव है वह सिद्धिचंद्रादि का हो ।
SR No.533741
Book TitleJain Dharm Prakash 1947 Pustak 063 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1947
Total Pages32
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size3 MB
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