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આમાનંદ પ્રકાશ -बम्बई का विरोध- इन्डिया के कार्यवाहकों का सक्रिय शहयोग
प्रापब हुआ। यदि श्री आत्माराम जी महाराज किसी भी श्री वीरचंद गांधी ने परिपद एवं परिपद तरह अमेरिका खांड के अंतर्गत चिकागो में के उपरांत अमेरिका के विभिन्न स्थानोंपर सारआयोजित मर्वधर्म परिपद में उपस्थित रहना गर्भित व्याख्यान दे, सर्वत्र जैन धर्म का डंका मान्य करे तो परिपद के वरिष्ठ अधिकारी बजाया । जैन धर्म ओर दर्शन के संबंध में एवं अग्रगण्य नेताओं ने उनका भव्य स्वागत जिन लोगों को अल्प अंथवा नगण्य जानकारी काने अथवा उनके योग्य समस्त सानुकूल थी, उन्होंने उन्हें अपने प्रवचनो के माध्यम व्यवस्था करने की पूरी तैयारी दर्शायी थी। से जैन दर्शन के मूल तत्त्व और सिद्धांतो से यदि वह अमेरिका पधारे तो जैन दर्शन संबंधी परिचित किया। जो लोग जैन धर्म को नास्तिक सर्वत्र प्रचलित कई भ्रम एवं शंका कुशंकाए अथवा वौद्धमत की शाखा के रूप में मानते दूर होने फो पूरी संभावना थी । इतना ही थे, उनका नम दूर किया । अपने मत का नहीं बल्कि एक बहुश्रुत, पंडित, स्वतंत्र विचारक प्रतिपादन करते हेतु उन्हे सर्वस्वी नई प्रणाली की उपस्थिति मात्र से परिषद के पुरस्कर्ताओ नया मार्ग अपनाना था और श्री आत्माराम जी का परिश्रम रंग लाए विना नहीं रहेगा, इसी महाराज की प्रेरणा तथा अद्भुत मार्गदर्शन के प्रकार की भावना अमेरिकन अग्रगण्यो ने अपने परिणाम स्वरूप श्री श्री गांधी को अपने कार्म आमंत्रण में व्यक्त की थी। परंतु महाराज में आशातीत सफलता प्राप्त हुई...वे जहाँ जी स्वयं भारत से बाहर जाने में असमर्थ थे। भी गए वहाँ विजयश्री उरहे वरण करती गई । जैन मुनि के यम-नियम उन्हें समुद्र पार करने किंतु उस समय का बम्बई नगर, जो आज की सम्मति प्रदान नहीं कर सकते थे। अपनी स्वतंत्रता एवं सामाजिक विकास के क्षेत्र ___फलम्वरूप उन्होंने अपने कतिपय संगी- के अपने उन मापद'ड के कारण विश्व में किसी साथियों से राय-परामर्श कर श्री वीरचंद राघ- का सानि नहीं रखता, इतना पिछडा हुआ और बजी गांधी, बार-अट-ला को अमेरिका प्रषित रुढ़िचुस्त था कि श्री आत्माराम जी महाराज करने का निष्चय किया। उनकी जानकारी की आंतरिक भावना एवं योजना को समझने के लिए महाराज जी ने अथक परिश्रम कर में वह निपट नि फल सिद्ध हुआ। यह तथ्य 'चिकागो प्रश्नोत्तर' नामक पुस्तिका तैयार की। उक्त जीर्ण पत्रिका से ज्ञात होता है, जो उस तदुपरांत श्री विरचंद गांधी को कुछ समय के समय महाराज जी की प्रवृत्ति का निषेध करने लिए अपने पास रख, आवश्यक शास्त्राभ्यास के लिए छपी थी । महज किसी की टीकाकराया... उन्हें जैन धर्म संबंधी अत्यावश्यक टिप्पणी अथवा आलोचना करने के लिए नहीं जानकारी और महत्वपूर्ण सूत्रों में निहित बल्किी आज के जैन समाज के समक्ष एक शास्त्र सिद्धांता से अवगत किया। महाराज हकीकत के रूप में उक्त पत्रिका का पुनरुद्धार जी को प्रस्तुत कार्य में जैन असोसिएशन ऑफ करना अपना कर्तव्य समझता हूँ।
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